भाजपा ने लांघी दीनदयाल की रेखा, पिता के खिलाफ गए सिंधिया

मप्र में भाजपा ने जनता की चुनी हुई कांग्रेस सरकार को गिरा दिया। उसने कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने के लिए तमाम हथकंडें अपनाएं और इस तरह वह अपने प्रेरणास्रोत दीनदयाल उपाध्यााय के सिद्धांतों को भी तोड़ गई। दूसरी तरफ, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा में जा कर अपने ही पिता की विचारधारा की मुखालफत कर दी जिसके तहत माधवराव ने जनसंघ में रहना मंजूर नहीं किया था।

Publish: Mar 21, 2020, 06:45 PM IST

jyotiraditya scindia and bjp president jp nadda
jyotiraditya scindia and bjp president jp nadda

- एल. एस. हरदेनिया

(लेखक मप्र के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।)

दलबदल एक ऐसा संक्रामक रोग है जो हमारी संसदीय व्यवस्था को खोखला कर रहा है। इस रोग की गंभीरता को अन्य लोगों के अलावा जनसंघ के संस्थापक और भारतीय जनता पार्टी के लाखों सदस्यों के प्रेरणास्त्रोत दीनदयाल उपाध्याय ने भी समझा था। उन्होंने 27 फरवरी 1961 को लिखे एक लेख में कहा था कि ‘‘प्रजातंत्र में एक से अधिक पार्टी होना स्वाभाविक है। इन पार्टियों को एक प्रकार के पंचषील को अपनाना चाहिए तभी स्वस्थ परंपराएं कायम हो सकेंगी। यदि वैचारिक और सैद्धांतिक आधार पर दलबदल होता है तो वह कुछ हद तक न्यायोचित माना जा सकता है। अन्य किसी भी आधार पर या कारण से होता है तो उसे उचित नहीं माना जा सकता। यदि ऐसी स्थिति हो कि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिले या बहुत कम अंतर से बहुमत मिले और राजनैतिक दल सत्ता हथियाने के लिए अनैतिक तरीके अपनाकर बहुमत हासिल करने का प्रयास करें तो यह बहुत गलत होगा। ऐसी स्थितियां उत्पन्न न हों इसलिए स्वस्थ परंपरा कायम करनी चाहिए। ऐसा होने पर स्थायी सरकारें अस्तित्व में रह पाएंगी और राजनैतिक पार्टियां स्वार्थी राजनीतिज्ञों के चंगुल में नहीं फसेंगीं।’

यह दुःख की बात है कि भाजपा, जो दीनदयाल उपाध्याय को अपना सबसे प्रमुख प्रेरणास्त्रोत मानती है, अल्पमत में होने के बावजूद बहुमत हासिल करने का प्रयास किया। हमारे प्रदेश में जो हुआ वह दीनदयाल उपाध्याय के दिखाए मार्ग के एकदम विपरीत है।

दीनदयाल उपाध्याय द्वार निर्मित आचार संहिता के विरूद्ध सत्ता प्राप्त करने का प्रथम प्रयास सन् 1967 में हुआ था। उस समय भी दलबदल कराने में सिंधिया परिवार की प्रमुख भूमिका थी। सन् 1967 के चुनाव के पूर्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस में थीं। टिकट वितरण एवं कुछ अन्य मुद्दों पर उनके तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित डी.पी. मिश्रा से गंभीर मतभेद हो गए।

राजमाता चाहती थीं कि पूर्व ग्वालियर राज्य के क्षेत्र के उम्मीदवारों का चयन उनकी मर्जी से हो। जब उन्होंने यह शर्त मिश्रजी के सामने रखी तो उन्होंने कहा ‘आप जिस राज्य की बात कर रही हैं वह सन् 1947 में समाप्त हो गया।’ यह सुनकर राजमाता आक्रोशित हुईं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और अपनी एक पार्टी बनाकर अनेक सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और जबरदस्त जीत हासिल की। अनेक क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत जप्त हुई। जिन कांग्रेस नेताओं की जमानत जप्त हुई उनमें दिग्गज कांग्रेस नेता गौतम शर्मा भी शामिल थे।

किंतु राजमाता की चुनौती के बावजूद कांग्रेस सत्ता में आ गई और डी.पी. मिश्रा दुबारा मुख्यमंत्री बने। सत्ता खोने के बावजूद राजमाता मिश्रजी का तख्ता पलटने का प्रयास करती रहीं और अंततः 36 कांग्रेस विधायकों द्वारा पार्टी से त्यागपत्र दिलावकर मिश्रजी का तख्ता पलटने में सफलता हासिल की।

परंतु इस दौरान राजमाता ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखा और संयुक्त विधायक दल का गठन किया। इस दल में जनसंघ भी शामिल हुई और चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करने में भागीदारी की। जनसंघ का यह फैसला दीनदयाल उपाध्याय के दिशा निर्देशों के विपरीत था। कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ करने के बावजूद राजमाता ने कोई पद स्वीकार नहीं किया और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनवाया। इससे यह साफ है कि राजमाता ने सिर्फ स्वयं पद पाने के लिए दलबदल नहीं करवाया।

अब माधवराव सिंधिया के राजनीतिक कॅरियर पर निगाह डालें। माधवरावजी ने जनसंघ से अपना राजनैतिक कैरियर प्रारंभ किया। जनसंघ में अपनी भूमिका उन्होंने ग्वालियर में आयोजित हुए जनसंघ के विशाल अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष के रूप में प्रारंभ की थी। अधिवेशन के दौरान अटलबिहारी वाजपेयी ने घोषणा की कि माधवराव शीघ्र ही जनसंघ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। इस संभावना के बावजूद माधवराव ने जनसंघ से नाता तोड़ा और कांग्रेस में बिना शर्त शामिल हुए। कुछ अंतराल के बाद उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता भी। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अटलबिहारी वाजपेयी को शिकस्त दी। नरसिंहाराव के प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान जैन डायरी के मुद्दे पर माधवराव ने कांग्रेस छोड़ दी। परंतु इसके बावजूद वे किसी पार्टी में शामिल नहीं हुए वरन् स्वयं एक पार्टी का गठन किया।

इस तरह चाहे राजमाता हों या माधवराव दोनों ने सिर्फ सत्ता या पद की खातिर कांग्रेस से नाता नहीं तोड़ा। परंतु ज्योतिरादित्य ने स्पष्टतः पद न मिलने के कारण कांग्रेस छोड़ी और पद पाने के लिए ही भाजपा में शामिल हुए। भाजपा में शामिल होते ही उन्होंने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश व समाज की सेवा करेंगे।   

न सिर्फ ज्योतिरादित्य परंतु अन्य कांग्रेस विधायकों को सत्ता का लालच देकर और दलबदल करवाकर एक बार फिर भाजपा ने दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशों का उल्लंघन किया है।