फासीवादी हिंदुत्व के मुकाबले भारतीय परम्पराएं महत्वपूर्ण

फासीवादी रुझान वाले हिंदुत्व के मुकाबले भारतीय समाज की परम्पराएं और इतिहास के सकारात्मक मूल्य आज भी एक महत्वपूर्ण और कारगर औजार हैं।

Publish: Mar 22, 2020, 06:13 PM IST

people against caa
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- बादल सरोज 
(सम्पादक लोकजतन) 

गृहमंत्री अमितशाह भले "नागरिकता क़ानून को नागरिकता छीनने वाला नहीं नागरिकता देने वाला क़ानून बताएं", मीडिया और उनके वेतनभोगी पक्षपोषक इस झूठ को सप्तम स्वर में दोहराएं। जमीनी स्तर पर - खासकर गोबर पट्टी में - माहौल कुछ अलग ही बनाया जा रहा है। जिसका हिन्दू परम्पराओं से कोई संबंध नहीं है उस हिंदुत्व के फुट-सोल्जर्स नीचे खुल्लमखुला उस सांघातिक वायरस को फैलाने में लगे हुए हैं जिसे यह मुल्क 1947 के बंटवारे के वक़्त देख चुका है। जब "उनका" एक देश बन चुका तो हिन्दुओं का "अपना देश" क्यों नहीं हो सकता, के कुतर्क से शुरू होकर यह नफरती अभियान मुसलमानों को खदेड़ बाहर किये जाने के बाद उनके "रोजगार" से बाकी बचों की बेरोजगारी दूर हो जाने के सब्जबाग दिखाते हुए "उनके" जाने के बाद उनकी खेती की जमीन से लेकर घर-मकान-दुकानों के बाकियों में बँट जाने तक जाता है।  

सीएए के समर्थन में घर घर जाकर "समझाने" का संघ-भाजपा का अभियान घर के दरवाजे तक पहुँचते पहुँचते अल्पसंख्यकों को बाहर करने के खुले एलान में बदल जाता है। किसी कारगर राजनीतिक प्रतिरोध के लगभग अभाव के चलते इसकी संक्रामकता बढ़ती चली जाती है। पिछले दो महीने से लगातार चल रही इस नफरती मुहिम की गति धीरे धीरे तीव्र की जा रही है। यह अत्यंत ही गंभीर और बेहद चिंताजनक इसलिए है क्योंकि अपने अंतिम निष्कर्ष में यह भारत के इतिहास के धिक्कार और उसके भविष्य की सारी संभावनाओं के नकार के सिवाय और कुछ नहीं है। 

यह न अचानक है ना हीं आज की बात है।  पिछले कुछ दशकों में आमतौर से और सीएए-एनआरसी की घोषणा के बाद खासतौर से सत्ता में बैठे गिरोह की ओर से इस देश में जो किया जा रहा है उसे भारत नाम की रंगबिरंगी बगिया की सुंदरता को बेनूर करने लिए उसकी जड़ों में तेज़ाब डालने, कुछ हजार वर्षों में हुए स्वाभाविक मेल से बनी, तरह तरह की सतरंगी और मोहक ईंटों से निर्मित एक मजबूत सभ्यता की बुनियाद में डायनामाइट रोपने के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।  ऊपर ऊपर दिए जा रहे दिखावटी बयानों, संसद में बोले जा रहे बोलवचनों के मुकाबले नीचे गाँव देहात से लेकर बस्ती और मोहल्लों तक संघ-भाजपा का अभियान ठीक इसी दिशा में चलने वाली उन्मादी और भड़काऊ, विघटनकारी और आग लगाऊ हरकतें हैं।    

2019 के चुनाव परिणाम वाले दिन दिल्ली के एक सभागार में दिए अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने इस चुनाव के पूरे अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि इसके दौरान धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा तक न होना बताई थी और इसे अपनी सबसे बड़ी कामयाबी करार दिया था। राजनीतिक मोर्चे पर धर्मनिरपेक्षता को पराजित करने के बाद अब यह हिन्दुत्वी गिरोह उस सामाजिक धर्मनिरपेक्षता को मिटाने की साजिश में जुट गया है जिसने पिछली अनेक सदियों में साझी संस्कृति, मेलमिलाप की जीवनशैली के ताने बाने से समाज की रचना की, उसके सोचने समझने की शैली को ढाला और संस्कारित किया।  यह भारत की असली ताकत है, उसकी एकता का मूलतत्व है।  इस लिहाज से यह हमला ज्यादा जघन्य और दूरगामी असर डालने वाला हमला है। भारत देश के बनने की प्रक्रिया को अपने एक शेर में  फ़िराक गोरखपुरी ने कुछ इस दर्ज किया था ;
"सरज़मीने हिन्द पर अक़्वामे-आलम* के फ़िराक 
काफिले बसते गए हिन्दोस्तां बनाता गया। "

                                                            (अक़्वामे-आलम**दुनिया भर की कौमों)
संघ-भाजपा की  विषैली मुहिम इस हिन्दोस्तान के खिलाफ है और इस तरह गुजरी सात हजार  में हुए हासिल का निषेध है। राजाओ-रजवाड़ो-सल्तनतों और बादशाहतों के बीच हुयी रार और जंग को धार्मिक रंग देना इसी दिशा में अपनाई जा रही धूर्तता है।  इनके अलावा भारतीय समाज में ; बुद्द और सनातनियों, वैष्णव और शैवों और शाक्तों, सगुणो और निर्गुणो, हिन्दू और मुस्लिमों, नागाओं और अघोरियों आदि इत्यादि धार्मिक टकरावों की बहुत सारी घटनायें है।  किन्तु सब कुछ के बावजूद कुल मिलाकर भारतीय संस्कृति की चार मोटी खूबियां ; निरंतरता, बहुलता, मिश्रणशीलता और पुनर्रचनात्मकता की हैं - वह प्राचीन से भिन्न नहीं है तो प्राचीन में फंसकर भी नहीं है।  इसके अनेक जीवंत उदाहरण इतिहास में चमकीले हरूफों में दर्ज है।

यही साझा जीवन की परम्परा थी जो हाल के दिल्ली दंगे, जो दरअसल दंगे नहीं एकतरफा नरसंहार था, में सामने आयी जब बाहर से लाये गए हत्यारे हमलावर दस्तों के मुकाबले स्थानीय जनता अपनी जान की जोखिम तक उठाकर एक दूसरे को बचाने और उन्माद की आग को बुझाने में लगी दिखी। दोनों फिरकों के मजदूर और गरीब, बिना किसी के कहे बताये, एक दूजे की हिफाजत में डटे थे।  भारतीय समाज की ठीक यही विशेषता है जिससे इस गिरोह को सबसे ज्यादा डर भय लगता है।  उसकी बेचैनी है कि सारे कस-बल लगाने और पूरे कारपोरेट मीडिया को झोंकने के बावजूद वह जो करना चाहता है उसे नहीं कर पा रहा।  इसलिए अब वो आदिम लिप्साएँ जगाना चाहता है।  जमीन, मकान, दूकान हथियाने की लालच भड़काना चाहता है। 

कई बार पहले और तकरीबन हमेशा सही साबित हुए सच को दिल्ली ने फिर दोहराया है कि फासीवादी रुझान वाले हिंदुत्व के मुकाबले भारतीय समाज की परम्पराएं और इतिहास के सकारात्मक मूल्य आज भी एक महत्वपूर्ण और कारगर औजार हैं।  इन्ही ने देश के अवाम को 1857 से लेकर 1947 तक एक सूत्र में बांधा था। जिसके नतीजे में आजादी और एकजुट राजनीतिक-भौगोलिक पहचान दोनों हासिल हुईं। इन्ही को फरहरा बना कर मौजूदा अँधेरे की कालिमा को चीर कर इस आजादी और समावेशी राजनीति-भौगोलिक एकजुटता की रक्षाकर उसे दीर्घायु बनाया जा सकता है।