भारत चीन संबंधों के पेच (भाग-3):  ​​​​​​​सच उस सोच का जिसने नेहरू को कठघरे में खड़ा किया

नेहरू का साम्यवादी झुकाव और लोहिया की हिमालय नीति का सच

Publish: Jun 02, 2020, 07:58 PM IST

courtesy : Amar Ujala
courtesy : Amar Ujala

चीन नीति को लेकर जवाहर लाल नेहरू को निशाना बनाने वालों में सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और तत्कालीन भारतीय जनसंघ शामिल नहीं थे। बल्कि इस मामले में जनमत को प्रभावित करने में डॉ. राम मनोहर लोहिया की भूमिका भी काफी बड़ी थी। डॉ. लोहिया खुद को समाजवादी मानते थे और इस कारण उनकी सोच की जनमत के कहीं ज्यादा बड़े हिस्से में स्वीकार्यता थी। बहरहाल, अगर हम डॉक्टर लोहिया की चीन (या हिमालय) नीति को समझने की कोशिश करें, तो यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है कि आखिर वे चीन विरोध औऱ तिब्बत की “आजादी” के समर्थन उतने उग्र क्यों नजर आते थे? इसके लिए जो व्यग्रता उनमें नजर आती थी, क्या उसके पीछे कोई वस्तुगत विश्लेषण था? उनकी प्रतिक्रिया दो बिंदुओं पर उनके खास आग्रहों से तय हुई?

 

ये बिंदु साम्यवाद और जवाहर लाल नेहरू हैं। यह तो साफ है कि 1950 के दशक से पहले ही डॉ. लोहिया साम्यवाद के आलोचक बन चुके थे। सोवियत संघ, खासकर स्टालिन के जमाने के अनुभवों ने उन्हें साम्यवाद के खिलाफ कर दिया था। दरअसल, लोहिया-जेपी और उनके साथियों ने साम्यवाद से अलग जिस समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की, वह उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया का परिणाम था। लेकिन समाजवाद का एक संस्करण नेहरू के पास भी था, जिसका प्रयोग आजादी के बाद की फौरी चुनौतियों एवं विभाजन के झटकों से कुछ उबरने के बाद उन्होंने शुरू किया था। इसके लिए उन्हें कांग्रेस के भीतर खासा संघर्ष करना पड़ा। वे अपना प्रयोग तब शुरू कर पाए जब पार्टी के अंदर वे अपने बूते पर एक मजबूत राजनीतिक ताकत बने। जब कांग्रेस के भीतर उनका नेतृत्व स्थापित और स्थिर हो गया। जिसके लिए उन्हें इंतजार करना पड़ा था। बहरहाल, यह सब हासिल करने के बाद नेहरू ने जो योगदान किया, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि नए भारत का एजेंडा पंडित नेहरू ने ही तय किया।

डॉ. लोहिया के सामने चुनौती साम्यवाद और नेहरूवादी-समाजवाद से अलग अपनी सोच के समाजवाद की पहचान स्थापित करने की थी। ऐसी कोशिशों के दौरान चरम रुख अख्तियार करना और जिन्हें वो अपना प्रतिद्वंद्वी समझते थे, उनके प्रति आक्रामक बने रहना उनकी एक स्वाभाविक मनोवृत्ति बनती गई। डॉ. लोहिया का अध्ययन करते समय साम्यवाद और नेहरू के प्रति ऐसी मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति का हमें अक्सर अहसास होता है। चीन की साम्यवादी क्रांति के प्रति डॉ. लोहिया की प्रतिक्रिया को इस मनोवृत्ति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। गौरतलब है कि उस समय तक डॉ. लोहिया साम्यवाद को तीसरी दुनिया के देशों के लिए मुक्तिदाता मानने की बजाय, गुलाम बनाने वाली विचारधारा के रूप में देखने लगे थे। ऐसे में कोई हैरत नहीं कि चीनी क्रांति के प्रति सकारात्मक रवैया रखने वाले पंडित नेहरू की कठोर आलोचना लोहियावादी राजनीति का सहज अंग बन गई। आजादी के बाद डॉ. लोहिया को नेहरू घरेलू मोर्चे पर भी अपना वैचारिक प्रतिद्वंद्वी लगते थे। तो नेहरू की साख पर हर कोने से हमला उनकी राजनीति का स्वाभाविक हिस्सा बना रहा।

जब तिब्बत में कम्युनिस्ट हस्तक्षेप के खिलाफ विद्रोह हुआ औऱ उसका दमन किया गया, तो चीन एवं तिब्बत के मुद्दों पर साम्यवाद और नेहरू- दोनों को घेरने की एक राजनीतिक परिस्थिति पैदा हुई। डॉ. लोहिया से लेकर जनसंघ तक ने इस स्थिति का पूरा फायदा उठाने की कोशिश की। इस संदर्भ को गंभीरता एवं गहराई से समझे जाने की जरूरत है।

तथ्य यह है कि अक्टूबर 1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शब्दों में नव-जनवादी क्रांति) के बाद नई सरकार ने एक साल के अंदर तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया। 1951 में तिब्बती प्रतिनिधियों और बीजिंग सरकार के बीच 17 सूत्री समझौता हुआ, जिसके तहत तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को मान्यता दे दी गई। इस समझौते में शामिल था बीजिंग स्थित सरकार तिब्बत को अपनी सामाजिक व्यवस्था के मुताबिक चलने देगी। कुछ समय तक ऐसा चला भी। लेकिन जब कम्युनिस्ट सरकार ने वहां की पुरानी व्यवस्था में हेरफेर शुरू कर दिया, तो 1958 में तिब्बती प्रभु वर्ग ने बगावत कर दी। इसे निर्ममता से कुचल दिया गया। मार्च 1959 में दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत आ गए। और इसके साथ ही भारत-चीन रिश्तों में एक स्थायी किस्म का कांटा फंस गया।

 

यहां यह प्रश्न प्रासंगिक है कि तिब्बत की घटनाओं के प्रति भारत में तब जो प्रतिक्रिया हुई, उसका आधार क्या था? आज छह दशक बाद हम भावनाओं, विचाधारात्मक आग्रहों और फ़ौरी राजनीतिक जरूरतों के चश्मे को उतार कर विवेकपूर्ण ढंग से उन घटनाओं का विश्लेषण कर सकने की बेहतर स्थिति में हैं। तब के बारे में जो जानकारियां उपलब्ध हैं, उनके आधार पर आज यह कहा जा सकता है कि तिब्बत की घटनाओं के बहाने चीन के खिलाफ जो माहौल भारत में तब बना, उसके पीछे दो तरह की राजनीतिक शक्तियों की सबसे बड़ी भूमिका थी। एक तो सीधे दक्षिणपंथ की ताकतें थीं, जिनकी निगाह भले तिब्बत पर रही हो, लेकिन निशाना बीजिंग पर था। जिनके बयानों में भले तिब्बत के धर्म-संस्कृति और भारत से उसके पारंपरिक-ऐतिहासिक संबंधों का जिक्र होता हो, लेकिन जिन्हें मुख्य चिंता इस बात की थी कि चीन में कामयाब हुई लाल लहर कहीं भारत तक ना पहुंच जाए। अगर उनकी बातों के पीछे सचमुच कोई सिद्धांत था, तो उनकी वैसी ही कोई चिंता नगालैंड या कश्मीर के संबंध में नेहरू काल में उठाए गए कुछ कदमों को लेकर क्यों जाहिर नहीं हुई?

दूसरी राजनीतिक ताकतें वो थीं, जो मार्क्सवाद- साम्यवाद के बरक्स या इस विचारधारा के विरोध में खुद को परिभाषित करने की मशक्कत में जुटी थीं। इस धारा के बीच सबसे मुखर शख्सियत डॉ. लोहिया नजर आते हैँ। इस धारा के नेता यह दलील देते थे कि दलाई लामा का राज भले सामंती हो, लेकिन यह अधिकार तो तिब्बत के लोगों को ही है कि अपने लिए वे कैसी सरकार चाहते हैं। चीन उन्हें सामंतवाद से मुक्त कराने के नाम पर तिब्बत को नहीं हड़प सकता। मगर वही नेता (जिनमें डॉ. लोहिया भी शामिल थे) जवाहर लाल नेहरू की सरकार पर नेपाल के संदर्भ में कुछ ना करने के लिए बरसते थे और चाहते थे कि भारत सरकार नेपाल में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को मदद देकर उस पड़ोसी देश को सामंती राणाशाही से मुक्त कराए।

यह तो हम साफ देख सकते हैं कि ऐसी ताकतों की इन प्रतिक्रियाओं के पीछे मुख्य प्रेरणा नेहरू पर हमला बोलने की थी। चीन और तिब्बत उसे एक बेहतर परिदृश्य मुहैया कराते थे। डॉ. लोहिया को साम्यवाद से गुरेज था और चीन की नीतियों के वे खिलाफ थे। लेकिन नेहरू सरकार की नीतियों एवं दिशा पर हमला बोलने के लिए चीन की तेजी से हो रही प्रगति को औजार बनाने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं होती थी। उनके इस कथन पर गौर करें- “ना मैं चीन का समर्थक हूं, ना ही मैं साम्यवाद को स्वीकार करता हूं। लेकिन मैं तथ्यों से अपनी आंखें मूंद नहीं सकता। मैं साम्यवाद को बिना रत्ती भर पसंद किए चीन के विकास संबंधी तथ्यों को स्वीकार करता हूं। चीन आज हर साल एक करोड़ टन इस्पात का उत्पादन कर रहा है, जबकि भारत में यह उत्पादन 25 लाख टन है। भारत के 5 से 6 करोड़ टन सालाना कोयला उत्पादन की तुलना में चीन का सालाना कोयला उत्पादन 35 करोड़ टन है। कृषि में भारत की पैदावार 5 से 6 करोड़ टन है, तो चीन का 20 करोड़ टन। जबकि चीन की आबादी भारत की डेढ़ गुना, यह संभवतः उससे भी कम है।” (इंडिया-चाइना एंड नॉदर्न फ्रंटियर्स, पेज- 139-40)

 स्पष्ट है कि ये आंकड़े इसलिए दिए गए हैं, ताकि यह बताया जा सके कि नेहरू भारत को गलत राह पर ले चले थे। लेकिन ऐसी राह हमेशा ही सापेक्ष होती है। दुनिया में आज तक सही या गलत की कोई निरपेक्ष समझ, धारणा या राह परिभाषित नहीं की जा सकी है। चीनी नेतृत्व के सामने अपनी परिस्थितियां और उनकी क्रांति का अपना चरित्र था। नेहरू के सामने अलग चुनौतियां, अलग समाज और सत्ता हस्तांतरण की वह अलग प्रक्रिया थी, जिसके परिणास्वरूप नेहरू प्रधानमंत्री बने थे। दुनिया में कहीं विपक्ष सरकार की आलोचना ऐसी परिस्थितियों और संदर्भ को ख्याल में रखते हुए नहीं करता। अगर नेहरू के विपक्षी ऐसा नहीं कर रहे थे तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। लेकिन एक विचारक औऱ एक मार्गदृष्टा से यह अपेक्षा जरूर की जाती है कि वह अपनी बातों में ऐसा संतुलन दिखाए। अगर किसी राजनीतिक विचारधारा का प्रणेता ऐसी जिम्मेदारी नहीं दिखाता, तो उसका असर उसकी धारा पर पड़े बिना नहीं रहता। भविष्य में डॉ. लोहिया की धारा ने जो रूप लिया, उसके कारण डॉ लोहिया के राजनीतिक व्यवहार में दिखी ऐसी गैर-जिम्मेदारियों में तलाशे जा सकते हैं।

 (अगला भागः चीन, हमारी दुविधा और आगे का रास्ता)