मही के किनारे-किनारे नौ दिन

Publish: Apr 06, 2020, 12:50 AM IST

Dam on mahi river near banswara

पश्चिमी मध्यप्रदेश से निकलकर राजस्थान के वागड़ क्षेत्र को हरा-भरा और समृद्धशाली करने वाली मही (माही) को कंठाल क्षेत्र की अथवा वागड़ की गंगा भी  कहा जाता है। उद्गम से लेकर सागर संगम तक इसका अप्रतिम सौन्दर्य और गहन गंभीरता देखते ही बनती है। मही के धार्मिक और पौराणिक महत्व ने सदा से ही मुझे उसकी ओर आकर्षित किया है। इससे प्रेरित होकर ही इसके किनारे-किनारे प्रवास का निर्णय लिया। धार जिले के सरदारपूर में मिण्डा गांव से लेकर गुजरात के खंभात में सागर मिलन तक मही करीब 750 किलोमीटर का सफर तय करती है।

सरदारपुर से निकलकर लाबरिया बांध के माध्यम से आसपास के इलाकों को हराभरा करती हुई मही रतलाम जिले की बाजना तहसील में बहती है। यहाँ समतल पठार से होकर पहाड़ों के बीच सघन वन में होकर अपनी राह बनाती है। यहीं गढखंखाई माता मंदिर, जिसे उच्चानगढ़ भी कहा गया है,पर मैंने अपना पहला पडा़व (रात्रि विश्राम) डाला। नदी की विशालता और टेढ़ी-मेढी़ सड़कें हर एक को अपने मोहपाश में बांध लेती है। यह दैवीय स्थल वनांचलवासियों की गहन आस्था का केन्द्र है। यही कारण है की यहीं से मही को भी देवी का दर्जा स्वत: ही मिल जाता है। नदी से केवल दस किलोमीटर पूर्व की ओर नायन कस्बे के निकट ही नदी तट पर प्राकृतिक प्रागैतिहासिक गुफाओं के दर्शन कर आगे बढ़ने पर मही सघन वनों में से गुजरती  दिखाई देती है।

नदी के समानान्तर सीधा मार्ग न होने से शैलानन् पहाड़ियों में अवस्थित केदारेश्वर महादेव के दर्शन करता हुआ मैं पहुँचता हूँ राजस्थान की महती जल परियोजना "माही बजाज सागर बाँध" के बैक वाटर पर। यहाँ अथाह जलराशि के बीच राजस्थान -मध्यप्रदेश अंतरप्रांतीय मार्ग पर बना एक विशाल सेतू अपनी बाहें फैलाये सैलानियों का स्वागत करता दिखाई देता है। एक पल को ऐसा लगता है कि कहीं मही ने यहीं तो खुद को सागर को समर्पित नहीं कर दिया। इस नज़ारे ने कदमों को रोका और यात्रा का दूसरा विश्राम यहीं रहा। समय भी ठहर सा गया था। चारों ओर पानी ही पानी। प्रतिपल समंदर सा अहसास।

मही के साहचर्य में अपने तीसरे पडा़व की ओर बढ़ने के पूर्व मैंने मही के आँचल में बसे बांसवाड़ा के ऐतिहासिक महल, मही की नहर पर विकसित किये गये कागदी उद्यान और मंदारेश्वर महादेव के दर्शन किये। यहाँ पर्यटन विकास निगम की व्यवस्थाएँ बढ़िया हैं। कलात्मक मूर्तियों के लिए मशहूर तलवाड़ा के पास स्थित शक्तिपीठ माँ त्रिपूरा सुंदरी यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है।

अगला पडा़व माही डेम था। माही-बजाजसागर परियोजना ने इस वनांचल के विकास की इबारत लिख दी है।चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। मही की यहाँ से आगे की यात्रा लंबे- चौडे़ पठारी क्षेत्र में तय होती है। मही के कछार में फैले इस मैदान को "छप्पन का मैदान" कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस इलाके से छोटी-मोटी  छप्पन नदियों ने खु़द को मही में विलीन कर दिया है।

इस मैदान की कटी-फटी प्राकृतिक संरचना से साक्षात्कार करते हुए मैं अपने अगले पडा़व "बेणेश्वर धाम" पहुँचता हूँ जहाँ दो बड़ी नदियों 'सोम' और 'जाखम' का मही से संगम होता है। इस त्रिवेणी संगम पर मही का दो धाराओं में बंटकर पुनःएक होना अप्रतिम सौन्दर्य की सृष्टि करता है। यह एक सिद्ध स्थल है और हर वर्ष माघ पूर्णिमा पर यहाँ विशाल जन समागम होता है। आदिवासियों की बहुलता के कारण इसे आदिवासियों का कुंभ भी कहते है। अब यहाँ विदेशी पर्यटक भी पहुँचने लगे हैं। 

यहाँ मही यू-टर्न लेकर दक्षिणवाहिनी हो जाती है। यहीं दो रात्रि बिताने के पश्चात मेरा अगला पडा़व प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर देव सोमनाथ था। यह दक्षिण राजस्थान का एक प्रमुख तीर्थ है।

पश्चिमी किनारे पर स्थित गलियाकोट कस्बा बोहरा समुदाय की विश्वविख्यात मस्जिद के लिए जाना जाता है। राजस्थान के सुदूर दक्षिण में बसा यह कस्बा देश-विदेश के श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। मही के साथ अपनी यात्रा का छठा पडा़व मैने यहीं किया और वर्षों पूर्व मही की बाढ़ में शहर के मिटने और पुनःबसने की रोमांचित कर देने वाली दास्तानों और ऐतिहासिक कथाओं से रूबरू हुआ।

यहाँ से कुछ ही मील की दूरी पर नदी पर गुजरात सरकार ने कडाणा डेम का निर्माण किया है। माही की इससे आगे की यात्रा पूर्वी गुजरात के विकास और समृद्धि की यात्रा है। मही के साथ जैसे-जैसे मैं आगे की ओर बढ़ता जाता हूँ, उसकी गहन गंभीरता तो सामने आती ही है लेकिन उसमें स्थित छोटे-बड़े टापू उसकी चंचलता को भी निखारते है। इसी कारण मही "द्वीपों की नदी" भी  कहलाती है।

मही के सागर मिलन की वेला अब नजदीक आती जा रही है। गुजरात के दो बड़े शहरों बड़ोदरा और आणंद के मध्य से गुजरते हुए मही के अमृत जल से हुए विकास को देखकर आखें चौंधिया जाती है। मही के सागर में समाहित होने के पूर्व उसके पूर्वी तट पर वासद गांव के समीप महीसागर नामक एक अत्यंत पवित्रतम तीर्थक्षेत्र है।यहाँ मही माता की लगभग सत्रह फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है। शतायु संत श्री बुद्धेश्वर जी का आश्रम यहाँ भक्ति रस से सराबोर कर देता है।

अपनी यात्रा के अंतिम और नवें पडा़व पर पहुंचकर मही को सागर में समाते देखने के पूर्व मैंने अपना मुकाम यहीं बनाया। मही का अंतिम छोर दुर्गम और बेहिसाब गहराई लिये हुए है।अपनी संपूर्ण यात्रा में मही पवित्र गंगा और रेवा की ही तरह देवी के स्वरूप में पुजी गई है। पूरे समय वन प्रांतर में बहने के कारण इसे "वन देवी" भी कहा गया है। मही की यात्रा एक पूरे जीवनकाल की यात्रा है। आप भी समय निकालकर मही की महत्ता, उसके अद्वितीय सौन्दर्य को निकट से अवश्यमेव महसूस करे।