गांवों में दो तिहाई डॉक्टरों के पास औपचारिक डिग्री नहीं

Rural India : भारत में एलोपैथिक दवा देनेवाले 57.3 प्रतिशत डॉक्‍टरों के पास मेडिकल की औपचारिक डिग्री नहीं

Publish: Jun 29, 2020, 12:53 AM IST

Photo courtesy : healthadspluc
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देश के स्‍वास्‍थ्‍य हालात पर हुई एक स्‍टडी बताती है कि भारत के गांचों में बड़ी संख्‍या में डॉक्‍टरों की कमी है। गांवों में इलाज कर रहे दो तिहाई डॉक्‍टरों के पास उपचार के लिए कोई औपचारिक डिग्री भी नहीं है। सर्वे कहता है कि देश के 75 प्रतिशत गांवों में प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य प्रदाता है मगर इनमें से 86 प्रतिशत प्राइवेट डॉक्‍टर हैं और इनमें से भी 68 प्रतिशत के पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं है।

 सोशल साइंस एंड मेडिकल जनरल में प्रकाशित यह अध्‍ययन दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने किया है। इस अध्ययन में प्राइवेट और निजी डॉक्‍टरों की उपलब्‍धता पर भी आंकड़े सामने रखे गए हैं। इसीपीआर ने यह सर्वे 2009 में देशभर के कुल 1,519 कस्बों में किया था। इस सर्वे में पाया गया था कि देशभर के लगभग तीन चौथाई यानि 75 फीसदी गांवों में केवल एक डॉक्टर है। तो वहीं औसतन प्राथमिक स्वास्थ्य प्रदाताओं यानी डॉक्टर की संख्या तीन है। 2016 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक सर्वे में भी यह पाया गया था कि भारत में एलोपैथिक दवाओं पर काम करनेवाले 57.3 प्रतिशत डॉक्‍टरों के पास मेडिकल की कोई औपचारिक डिग्री नहीं है। स्वास्थ्य संगठन के इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि केवल 31.4 फीसदी डॉक्टरों ने ही सेकंडरी स्तर तक की शिक्षा ग्रहण की है।

स्थिति अभी बदली नहीं है

सीपीआर द्वारा विश्लेषण करने वाली टीम के प्रमुख जिष्णु दास ने अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स को बताया है कि भले ही सीपीआर द्वारा किए गए इस सर्वे को अब 11 साल बीत चुके हैं। लेकिन अब भी ग्रामीण भारत में डॉक्‍टरों की स्थिति बदली नहीं है। दास ने बताया कि ग्रामीण भारत में डॉक्‍टरों की स्थिति कमोबेश आज भी वैसी ही है, जैसी ग्यारह वर्ष पूर्व सर्वे के दौरान हमें मिली थी। बसु ने बताया कि हमने हाल ही के वर्षों में कुछ अन्य सर्वे भी किए हैं, जिससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि ग्रामीण भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में अब भी अयोग्य डॉक्‍टरों का दबदबा है। जिष्णू दास अभी वाशिंगटन स्थित जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं में उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत की स्थित ज़्यादा बेहतर है।

मध्‍य प्रदेश में डॉक्‍टरों के 70 फीसदी पद खाली

एमपी विधानसभा के मानसून सत्र में जुलाई 2019 को तत्‍कालीन स्वास्थ्य मंत्री तुलसी सिलावट ने स्वीकार किया कि था कि प्रदेश में डॉक्‍टरों की आवश्‍यकता की तुलना में 70 प्रतिशत पद खाली हैं। उन्‍होंने कहा था कि बीजेपी के 15 साल के शासन के बाद स्वास्थ्य क्षेत्र ऐसी ही स्थिति में मिला है। तब मप्र लोक सेवा आयोग से मेडिकल ऑफिसर के रिक्‍त 1065 पदों के लिए विज्ञापन भी जारी किए थे।

सरकार की भर्ती प्रक्रिया ही गलत

एमपी में सरकार कभी गांवों में काम करने के लिए मेडिकल स्‍टूडेंट से बांड भरवाती है, कभी एनजीओ से अनुबंध कर डॉक्‍टर भर्ती प्रक्रिया का निजीकरण करती है मगर हर कदम के बाद भी डॉक्‍टरों की कमी पूरी नहीं हो पाती है। जन स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के अमूल्‍य निधि कहते हैं कि सरकार केवल भर्ती का दिखावा करती है। वह गांवों में संसाधन बढ़ाए बगैर डॉक्‍टरों को गांव भेजना चाहती है। डॉक्‍टर बांड तोड़ कर पैसा भर देते हैं मगर बिना साधन गांवों में काम नहीं करते हैं। सरकार ने जब सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे पोस्ट ग्रेजुएट (पीजीएमओ) की मेडिकल ऑफिसरों की भर्ती करनी चाही तो मध्यप्रदेश मेडिकल ऑफिसर्स एसोसिएशन ने इस पर आपत्ति ले ली। एसोसिएशन का कहना है कि प्रदेश में करीब 700 पोस्ट ग्रैजुएट डॉक्टर अपने प्रमोशन का इंतजार कर रहे हैं। वे अभी तक स्पेशलिस्ट नही बन पाए हैं। यदि सीधे स्पेशलिस्टों की भर्ती होगी तो पहले से कार्यरत डॉक्टर उनसे जूनियर ही रह जाएंगे। सरकार पहले पोस्ट ग्रेजुएट कर चुके 700 डॉक्टरों को विशेषज्ञों के पदों पर पदोन्नत करे। नीति तय नहीं होने से भी भर्तियां रूकी हुई है।