भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत पर बारीकी से नज़र रखने वाली संस्था CMIE यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ने देश में बेरोज़गारी की हालत से जुड़े कुछ नए आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक अगस्‍त 2020 के मुकाबले सितंबर 2020 में बेरोजगारी दर कम हुई है। सितंबर 2020 में देश की कुल Job Loss Rate यानी लोगों की नौकरियां छिन जाने की दर 6.67 फीसदी रही, जो एक महीने पहले अगस्‍त 2020 में 8.35 फीसदी थी। बेरोज़गारी दर में ये गिरावट पहली नज़र में एक खुशखबरी लगती है। लेकिन असल में ऐसा है नहीं। इन आंकड़ों को जारी करने वाली संस्था CMIE ने भी कहा है कि बेरोज़गारी दर में कमी आने से खुश न हों। लेकिन क्यों, आइए समझते हैं।

 

रोज़गार की हालत सुधरी नहीं, बिगड़ी है!

CMIE का साफ कहना है कि नौकरी छिनने की रफ्तार भले ही कम हुई हो, लेकिन इसमें खुश होने की कोई बात नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसी संस्था के कुछ और आंकड़े बता रहे हैं कि देश में बेरोज़गारी की हालत पहले से सुधरी नहीं, बल्कि और बिगड़ी है।

लेबर पार्टिसिपेशन की घटती दर: इसी में छिपी है असली कहानी

CMIE के मुताबिक देश में रोज़गार की बिगड़ती हालत का सबसे अहम संकेत लेबर पार्टीसिपेशन रेट (LPR) यानी रोज़गार में कामकाजी आबादी की भागीदारी घटना है। आंकड़े बता रहे हैं कि सितंबर में देश की औसत लेबर पार्टिसिपेशन दर घटकर 40.3% हो गई, जबकि अगस्त में यही दर 40.96% यानी लगभग 41 फीसदी थी। संस्था के सीईओ महेश व्यास के मुताबिक जून से अगस्त के मध्य तक लेबर पार्टीसिपेशन दर लगभग 40.9% के आसपास थी। लेकिन 16 अगस्त के बाद इसमें लगातार गिरावट देखने को मिली, जो बेहद चिंता की बात है।

आप सोचेंगे कि यह कैसे हो सकता है कि एक तरफ तो बेरोज़गारी दर घट रही है और दूसरी तरफ कामकाजी आबादी की रोज़गार में हिस्सेदारी भी कम हो रही है। हम आपको बताते हैं कि ऐसा कैसे मुमकिन है।

ऐसे होती है लेबर पार्टिसिपेशन रेट (LPR) या श्रम शक्ति की गणना

दरअसल, लेबर पार्टिसिपेशन रेट या आम भाषा में कहें तो लेबर फोर्स या श्रम शक्ति की गणना दो तरह के लोगों की संख्या को जोड़कर की जाती है।

1. एक तो ऐसे लोग जिन्हें रोज़गार मिला हुआ है

2. और दूसरे वे, जो बेरोज़गार तो हैं, लेकिन रोज़गार की तलाश में मुस्तैदी से लगे हैं।

ध्यान देने की बात ये है कि वे लोग LPR या लेबर फोर्स में शामिल नहीं माने जाते, जो रोज़गार के घटते मौकों से इतने निराश हो चुके हैं कि अब कामकाज खोजना भी बंद कर दिया है। बेरोज़गारी दर का कैलकुलेशन इसी तरह जोड़ी गई लेबर फोर्स को आधार मानकर किया जाता है।

रोज़गार बढ़े बिना भी कैसे घट सकती है बेरोज़गारी दर

लेबर फोर्स की गणना के ऊपर बताए फॉर्मूले की वजह से कई बार ऐसा हो सकता है कि इकॉनमी में रोज़गार बढ़े बिना भी बेरोज़गारी दर घट जाए। ऐसा होता है लेबर फोर्स में शामिल लोगों की संख्या के घटने से। जब भी ऐसा होगा, रोज़गार बढ़े बिना ही बेरोज़गारी की दर अपने आप घटती हुई नज़र आएगी।

मायूसी के कारण भी घटती है लेबर फोर्स

LPR या लेबर फोर्स में कमी इस बात का भी संकेत हो सकता है कि देश की कामकाजी उम्र वाली आबादी में नौकरी कर रहे या उसकी तलाश में लगे लोगों का हिस्सा घट गया है। CMIE की रिपोर्ट को मानें तो फिलहाल कुछ ऐसा ही हो रहा है। यानी देश के आर्थिक हालात इतने मायूस करने वाले हैं कि बहुत से बेरोज़गार लोग निराश होकर बैठ गए हैं। यहां तक कि उन्होंने कामकाज खोजना भी बंद कर दिया है। आप ही सोचिए कि ये निराशाजनक हालात खुशी की वजह कैसे हो सकते हैं?

बेरोज़गारी के पिछले आंकड़ों का बोझ

इसके अलावा एक और भी वजह है, जो हमें बेरोज़गारी दर के नए आंकड़ों पर खुश होने से रोकती है। वजह ये कि सितंबर के आंकड़े उससे पिछले महीनों की तुलना पर आधारित हैं और बेरोज़गारी जब माह-दर-माह बढ़ रही हो, तो उसके बढ़ने की रफ्तार में कमी आना खुशी की बात नहीं हो सकती। यानी जब हम सितंबर में 6.67 फीसदी बेरोज़गारी दर की बात करते हैं तो अप्रैल की 23.52 फीसदी, मई की 21.73 फीसदी, जून की 10.08 फीसदी, जुलाई की 7.40 फीसदी और अगस्त की 8.35 फीसदी की बेरोज़गारी दर के डराने वाले आंकड़े भी पीछे से झांक रहे होते हैं।

यानी ये मसला सिर्फ किसी एक महीने के आंकड़े को अलग से देखने का नहीं, बढ़ती बेरोज़गारी की उस श्रृंखला को समझने का है, जो गर्दन से बंधे भारी बोझ की तरह हमारी इकॉनमी को लगातार गहरे, और गहरे गड्ढे में ले जा रही है। यही है रोज़गार के आंकड़ों की वो हकीकत जो पहली नज़र में भले ही खुशनुमा लगे, गहराई में झांकने पर भयावह नज़र आती है।