अभी-अभी हमारे एक पाठक ने बात हुई तो उन्होंने लगभग झल्लाते हुए कहा, ‘‘देश में यह चल क्या रहा है। हमारी मोदी सरकार ने देश को बांटने वाली ताकतों को एक संदेश दिया था। पहलगांव हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर के बारे में प्रेस कांफ्रेंस की जिम्मेदारी कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को दे कर एक रणनीतिक कदम उठाया गया था। इस कदम की पूरी दुनिया में सभी लोगों ने खूब प्रशंसा भी की थी। यहां तक कि विरोधी विचारकों की राय थी कि यह कदम देश को बांटने वाली ताकतों को बेहतर जवाब था। जब ऐसा है तो फिर देश और प्रदेश की सरकार देश को तोड़ने वाला बयान देने वाले अपने मंत्री विजय शाह से इस्तीफा क्यों नहीं ले रही है ऐसी क्या मजबूरी है कि बीजेपी नेता कर्नल सौफिया कुरैशी के घर जा कर सफाई दे रहे हैं लेकिन मंत्री पर एफआईआर के हाईकोर्ट के आदेश को मानने में घंटों लगा देते हैं। इस्तीफा लेना या मंत्रिमंडल से हटाना तो दूर की बात है। क्या सरकारें इतना मजबूर हैं या इसके पीछे कोई ओर खेल है?’’
हमारे पाठक का आक्रोश और पीड़ा जायज है। वे खुल कर स्वयं को बीजेपी का समर्थक घोषित करते हैं। आज उनके स्वर में आक्रोश, पीड़ा और खासतरह की नाराजगी थी तो इसका भी कारण है। उनके सवालों पर मैंने क्या जवाब दिए यह बताने से पहले जरा इस मामले पर बात करना चाहता हूं। मामला ऑपरेशन सिंदूर के बाद जगह-जगह हो रहे कार्यक्रम और इसका राजनीतिक श्रेय लेने से जुड़ा है। आठ बार के विधायक और जनजातीय कार्य मंत्री विजय शाह 11 मई 2025 को इंदौर के महू के रायकुंडा गांव में एक हलमा परंपरा कार्यक्रम में पहुंचे थे। इस कार्यक्रम में उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी का नाम लिए बिना कहा, “जिन्होंने हमारी बेटियों के सिंदूर उजाड़े थे, हमने उनकी बहन भेजकर उनकी ऐसी-तैसी कर दी।”
आगे और भी आपत्तिजनक बातें कही गईं। कार्यक्रम के दौरान शाह के संबोधन के कुछ अंश प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रसारित हुए। बयान को कर्नल सोफिया कुरैशी और भारतीय सेना के अपमान के रूप में देखा गया। कांग्रेस और स्वयं बीजेपी के नेताओं ने भी इस बयान को देश तोड़ने वाला करार दे कर मंत्री शाह पर कार्रवाई की मांग की लेकिन बीजेपी सरकार चुप बैठी रही। पार्टी ने इतना भर किया कि मंत्री विजय शाह को प्रदेश कार्यालय बुला कर फटकारा और कर्नल सौफिया कुरैशी के रिश्तेदारों के घर अपने नेताओं को भेज कर मरहम लगाने की कोशिश की।
मामला केवल एक बयान का नहीं है। यह तो उस सोच का है जो देश के विभाजन में यकीन रखती है। बीजेपी सरकार चुप है और पार्टी वोट के गणित को देख मामले के ठंडा पड़ने का इंतजार कर रही है। ऐसे में कोर्ट ने पहल की। हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया। जबलपुर हाईकोर्ट की डबल ने विजय शाह के बयान ‘कैंसर’ जैसा बताते हुए उनके खिलाफ मध्य प्रदेश के डीजीपी से 4 घंटों के भीतर एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिए थे। शाम 6 बजे तक एफआईआर हो जानी थी लेकिन एफआईआर दर्ज करने का निर्णय लेने में रात 11 बज गए। रात 11.36 बजे मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की और से एक्स पर पोस्ट कर बताया गया, ‘माननीय मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के आदेश का पालन करते हुए माननीय मुख्यमंत्री जी ने कैबिनेट मंत्री श्री विजय शाह के बयान के संदर्भ में कार्यवाही करने के निर्देश दिए है।’ इस पोस्ट के बाद मंत्री पर एफआईआर हो सकी है। लेकिन उनके इस्तीफे या हटाए जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है।
मंत्री विजय शाह ने माफी जरूर मांगी है लेकिन इस माफी में भी दिल से पश्चाताप नहीं महसूस होता है। वे अन्य राजनीतिक बयानों की तरह ही इसे भी सामान्य संदेश मान रहे हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट स्वयं उनकी मंशा पर सवाल उठा रहा है। हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ विजय शाह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा गया कि मंत्री के बयान को गलत समझा गया जबकि उन्होंने इसके लिए माफी मांग ली है। मीडिया ने ओवर हाइप कर दिया है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे संवेदनशील समय मे एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को सोच समझकर बोलना चाहिए। याचिका पर सुपीम कोर्ट शुक्रवार को सुनवाई करेगा।
सप्रीम कोर्ट वही कह रहा है जो आम भारतीय के मन में हैं। हमारे नेताओं को बोलते समय देश की अखंडता और संप्रभुता का ख्याल रखना चाहिए। नेता ऐसी चूक करें तो पार्टी को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए लेकिन बीजेपी तो मामले के शांत होने की प्रतीक्षा कर रही है। खबरें बता रही हैं कि नेतृत्व ने मंत्री विजय शाह को चुप रहने और एकांत में जाने की सलाह दी है ताकि न मीडिया में बात उछले और न मंत्री को इस्तीफा देना पड़े। दो-चार दिनों में मामला शांत हो जाएगा। तैयारी तो यह भी है कि अभी मंत्री को हटा देते हैं और कुछ माह बाद बड़ी जिम्मेदारी दे दी जाएगी। यह राजनीतिक घटनाक्रम हमारे पाठक के उस सवाल का जवाब है जिसमें उन्होंने पूछा था कि बीजेपी की ऐसी क्या मजबूरी है कि प्रधानमंत्री मोदी, सहित पूरी पार्टी की दुनिया में भद पिटवाने वाले मंत्री को हटा नहीं पा रही है। असल में कुंवर विजय शाह आदिवासी नेता हैं। मालवा-निमाड़ में आदिवासी वोट बैंक पर पकड़ कर चलते ही वे स्वच्छंद राजनीति करते हैं। इसीकारण खंडवा-हरसूद क्षेत्र में किसी भी चुनाव में उनके परिवार का व्यक्ति ही जीत हासिल करता है। इसी ताकत के दम पर वे पार्टी में खड़े हैं और पार्टी नतमस्तक।
हाईकोर्ट से बात सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गई है। जो फैसला राजनीतिक स्तर पर होना था वह न्यायपालिका के पाले में भेज दिया गया है। यानी बीजेपी सरकार मंत्री विजय शाह पर कार्रवाई नहीं करना चाहती है बल्कि उनके बच जाने के अवसर पैदा कर रही है ताकि वोट बैंक प्रभावित न हो। हाईकोर्ट के आदेश पर एफआईआर हुई लेकिन यह दिखावे की सख्ती की तरह है। कोई और होता तो उसे देशद्रोह के मामले में तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता। लेकिन, बात केवल विजय शाह तक नहीं सिमटी है। यह तो उस सोच तक पहुंच रही है जो ऐसे बयानों को आधार देती है। हाईकोर्ट के कडे रुख के बावजूद सरकार मंत्री विजय शाह के खिलाफ नहीं जा रही तो यह उस विचार का ही पोषण माना जा रहा है जो विचार देश की धर्मनिरपेक्षता को खत्म करना चाहता है। उस दिन मंच तो और भी नेता थे। बीजेपी की फायर ब्रांड कही जाने वाली पूर्व मंत्री तथा महू से विधायक उषा ठाकुर सहित कई नेता मंच थे। एक भी नेता ने मंत्री विजय शाह के बयान पर आपत्ति नहीं जताई बल्कि वे मुस्कुराते रहे। उनके भाषण पर तालियां बजाते रहे। जिस बयान पर पूर्व मंत्री उमा भारती जैसे नेताओं को आपत्ति हो रही है उस पर मंच पर बैठे किसी नेता को बुरा नहीं लगा। है न अचरज की बात।
केवल विजय शाह का यही बयान ही क्यों, पहले भी वे कई बार अपने बयानों से अपने विचारों की पोल खोल चुके हैं। लेकिन पार्टी उनके खिलाफ कार्रवाई करने से कतराती है। विजय शाह के अलावा सांसद साक्षी महाराज, रमेश बिधूड़ी, प्रज्ञा ठाकुर सहित दर्जनों नेताओं ने संवैधानिक पदों पर रहते हुए समाज को बांटने वाले बयान दिए और बीजेपी केवल निंदा कर रह गई। प्रज्ञा ठाकुर ने जब नाथूराम गोडसे को लेकर बयान दिया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वे सांसद प्रज्ञा ठाकुर को कभी मन से माफ नहीं करेंगे। लेकिन इसके बाद भी प्रज्ञा ठाकुर न बोल थमे न पार्टी ने कोई कार्रवाई ही की। ऐसे नेताओं पर सख्त कार्रवाई होती तो शायद आगे ऐसे बयानों पर विराम लगता लेकिन जब राजनीतिक समीकरण ही सहयोगी हों तो जहरीले बोल का थमना असंभव सा लगता है। यह विचार किसी भी नेता को सार्वजनिक रूप से अपनी नफरत या विभाजनकारी सोच को प्रकट करने की छूट देता है। इसी कारण उसे ऐसे बयानों पर शर्म नहीं फख्र होता है। यही वह ताकत है जिसके बल पर नफरती बोल पर हंगामा होने पर केवल माफी मांग कर रह जाता है जबकि उसके बोल ने समाज के ढांचे को बुरी तरह प्रभावित किया है। ऐसे सारे बयानों के पीछे वह सोच है जो सारे तर्क और समझ को ताक पर रख कर पूरी पार्टी को संचालित कर रही है। इसी सोच के प्रश्रय के कारण नफरती बोल पर कार्रवाई के वक्त पार्टी के इरादे कमजोर पड़ जाते हैं।