कुछ जिज्ञासुओं के मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि ज्ञान बड़ा है अथवा भक्ति? कुछ लोग ज्ञान की महिमा दिखलाते हुए भक्ति का अपकर्ष दिखलाते हैं, तो कुछ लोग भक्ति की महिमा के सामने ज्ञान को निकृष्ट बतलाते हैं। कोई भक्ति को ज्ञान का साधन तो कोई ज्ञान को भक्ति का साधन  कहते हैं। लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का कहना है कि ज्ञान से विश्वास और विश्वास से प्रीति होती है।

जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ न प्रीती।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई
जिमि खगेश जल कै चिकनाई।।

भक्ति मणि को प्राप्त करने के लिए ज्ञान वैराग्य को साधन ही माना गया है।मानस के उत्तर कांड में देखा जा सकता है।भक्ति के बिना जो ज्ञान को ढूंढ़ते हैं, वे मंद भाग्य हैं। मानो दूध के लिए कामधेनु को छोड़कर आक को ढूंढ़ते हैं।

जे असि भगति जानि परिहरहीं।
केवल ज्ञान हेतु श्रम करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी।
खोजत आक फिरहिं पय लागी।।

श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है-

येSन्येरविन्दाक्ष विमुक्त मानिन:,
त्वय्यन्त भावादविशुद्ध बुद्धय:
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत:,
पतन्त्यधोSनादृतयुष्मदंघ्रय:।

अर्थात् हे कमलनयन!जो ज्ञान के प्रभाव से अपने को निर्मुक्त जानने वाले हैं या ज्ञानी मानते हैं, परन्तु आपके श्रीचरणारविन्द प्रेम द्वारा जिनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है,वे बड़ी कठिनाई से उच्चतम पद पर आरूढ़ होकर भी पुनः पतित हो जाते हैं। क्यूंकि उन्होंने आपके श्री चरणों का आदर नहीं किया।

जे ज्ञान मान विमत्त तव 
भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि
परत हम देखत हरी।।

भगवान के साथ जिनका सौहार्द सुदृढ़ है, ऐसे भगवान के भक्त कभी भी मार्ग से गिरते नहीं हैं अपितु वे भगवान द्वारा विघ्न सेनानियों के सिर पर पैर रखकर निर्भय विचरण करते हैं। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए सरलता से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।

नैष्कर्म्य मप्यच्युत भाव वर्जितं,
न शोभते ज्ञान मलं निरंजम्।
कुत: पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे,
न चार्पितं कर्म यदप्य कारणम्

ज्ञान, वैराग्य, धर्म और कर्म यह सभी प्रेम लक्षणा भक्ति से ही सुशोभित होते हैं। उसके बिना सब निरर्थक हो जाते हैं।

जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू।
जहां न राम प्रेम परधानू।।
सो सब धरम करम जरि जाऊं।
जंह न राम पद पंकज भाऊ।।