लोकसत्ता और राजसत्ता में एक खास अंतर देखा गया है। लोकसत्ता के केंद्र में सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे होते है और इससे आम जनता का जुड़ाव होता है। कुल मिलाकर लोकसत्ता सामूहिक प्रतिनिधित्व पर आधारित होती है, जहां स्वहित का अंश भी दिखाई नहीं पड़ता। जबकि राजसत्ता  व्यक्तिगत हित को सर्वोपरी रखता है और राजसत्ता का जब व्यक्तिगत हित से टकराव हो तो सामाजिक न्याय और आम जनमानस के हित नगण्य हो जाते हैं।

दांडी यात्रा में राज सत्ता के व्यक्तिगत हितों को चुनौती दी गई थी और इससे देश में यह संदेश गया था की सत्ता कोई भी हो वहां रहने वाले आम जन मानस के हितों की अनदेखी नहीं की जा सकती। दांडी यात्रा की सफलता से जन मानस जागरुक हुआ, सविनय अवज्ञा आंदोलन से अंग्रेजी राज सत्ता को कड़ी चुनौती मिली। इसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन हुआ और अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिल गई। दांडी यात्रा के सफर में गरीब, वंचित, किसान, महिलाएं, शोषित एवं सभी प्रकार के लोग दिखाई दिये। इसमें भारतीय समाज का पढ़ा लिखा तबका भी था, कुछ धन्ना सेठ भी रहे होंगे लेकिन अंतत: ये सभी लोग सामूहिक रूप से इस बात पर एकमत थे कि आम जनता के हितों की अनदेखी सत्ता के द्वारा नहीं की जानी चाहिए। दांडी यात्रा असल मायनों में लोकतन्त्र का प्रतिनिधित्व कर रही थी और इसीलिए उसके दूरगामी परिणाम शानदार रहे।

दांडी यात्रा के डेढ़ दशक बाद भारत की लोकतांत्रिक यात्रा प्रारम्भ हुई और यह सफर बदस्तूर जारी है। लोकतंत्र सुधारवादी होता है, अत: इन आठ दशकों में भारत में हमने सुधार और बदलाव भी देखे हैं। राजनीतिक दल वैचारिक आधार पर बनते और पसंद किए जाते है। और इससे सर्वोच्च सत्ता के शिखर के मार्ग भी तय किए जाते है। गांधी के साथ और गांधी के बाद के कई राजनीतिक दलों ने भारत में सत्ता स्थापित की और वे शासन व्यवस्था का संचालन करते रहे। वैसे गांधी राजनीतिक दलों पर आधारित सत्ता को लेकर कभी सहज नहीं थे और वे इससे अलग जनता की भागीदारी देखना चाहते थे। बापू की आशंका सच निकली, राजनीतिक दलों का ध्यान लोकसत्ता की आत्मा को महसूस करने में कम ही रहा, और वे ज्यादा से ज्यादा सत्ता को केन्द्रीकृत करते चले गए। आलम यह हुआ कि उनकी स्वीकार्यता सभी वर्गों में कमतर होती गई।

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था की राष्ट्र जैसा है वैसा ही रहने दो। बापू का आशय देश की आत्मा से था। अब प्रश्न यह उठ खड़ा होता है की भारत की आत्मा कैसी है। आत्मा को देखा तो नहीं गया, बस उसे महसूस ही किया जा सकता है, इसलिए भारत को देखने की जैसी आपकी दृष्टि होगी, भारत आपको वैसा ही नजर आएगा।

भारत को देखने की महात्मा गांधी की दृष्टि बेहद सामान्य थी। वे रेल के तीसरे दर्जे में बैठकर भारत को आसानी से समझते थे। वे पैदल चलकर भारत को महसूस करते थे। उन्हें गांव पसंद थे और वे कहते भी थे की भारत गांवों में रहता है। उनके लिए स्वच्छता का पालन जीने का एक तरीका था। अपने हाथों से काम करना उनके लिए स्वावलंबन था। उतनी ही इच्छा जितनी आवश्यकता हो, यह उनका आर्थिक मंत्र था। एक हाथ में लाठी और दूसरे में पोटली, यह बापू की पहचान थी। पोटली में गीता, रामायण, कुरान या किसी भी धर्म का ग्रंथ होता था। महात्मा गांधी के जीवन की घटनाओं में यह साफ देखा गया कि उनके प्रतिरोध सार्वजनिक होते थे और उनमें हमेशा पारदर्शिता होती थी। दांडी का सफर महज अहमदाबाद से शुरू होकर दांडी में ही नहीं समाप्त हो गया बल्कि इसके समांतर देश में उत्तर से लेकर दक्कन तक कई यात्राएं निकाली गईं। गांधी हिंसा का प्रतिरोध करते थे, अत: किसी भी यात्रा में हिंसा नहीं हुई। अस्पृश्यता को लेकर उनका प्रतिरोध था जो उनके आश्रम से शुरू हुआ और वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। चौरीचौरा हिंसा, अहिंसक सिद्धांतों से मेल नहीं खाती थी, इसलिए उन्होंने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने का अप्रिय निर्णय भी लेने से परहेज नहीं किया।

दरअसल महात्मा गांधी, महात्मा इसीलिए हैं क्योंकि उनके मन में सत्ता के शिखर पर बैठने की कभी अभिलाषा नहीं रही। भारत की जनता में वह सर्वमान्य भी हुए और जनता ने उन पर असीम विश्वास भी किया। यह विश्वास ही आज़ादी के आंदोलनों के लिए संजीवनी बना रहा।

बापू के लिए स्वयं का हित वहीं था जो आमजन का हित था। नमक कानून तोड़ना जरूरी था क्योंकि यह भारत के लोगों की रोटी और अस्मिता के अधिकारों के विपरीत था। गांधी के जीवन में देश और समाज की अस्मिता सदैव उनके साथ साथ चलते रहे। देश और समाज में सभी आ जाते है इसलिए उनके साथ सब चले। गांधी की प्राथमिकता यही रही की समाज का कोई भी ऐसा अंग न हो, जिसे राष्ट्र के  प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास न हो। किसी भी धर्म या जाति के प्रति उनके व्यवहार में कोई अंतर नहीं था। क्योंकि भारत के लोगों को देखने की उनकी दृष्टि सामान्य रही।

भारत में दांडी यात्रा को महोत्सव के रूप में मनाए जाने की सरकारी घोषणा हुई है। गांधी को जब भी याद करो, वह हमेशा उपयोगी ही होता है। दांडी यात्रा से भारत ने बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन उसी भारत ने दांडी का सबक नहीं सीखा।

दांडी कहता है की गरीबी देश के लिए संकट है, भारत में झोपड़ियों की संख्या लगातार बढ़ी है।  दांडी की सीख में भारत समाजवादी मजबूत भारत रहा लेकिन बाद का भारत पूंजीवादी भारत में बदलने के मोह से ग्रस्त है। दांडी में राजसत्ता का विरोध था, आज़ाद भारत में अनेकों बार लोक सत्ता का व्यापक विरोध देखा गया है, हो भी क्यों न, लोकसत्ता भी सत्ता के लोभ और व्यक्तिगत हितों से बच नहीं सकी है। दांडी में भारत एक नजर आया। लेकिन यह अनुभूति अब नहीं होती।

दांडी के साथ और दांडी के बाद के भारत में बहुत अंतर है। अब दांडी बहुत पीछे छूट गया है और भारत के राजनीतिक दल राज सत्ता की तर्ज पर लोक सत्ता को अपनी इच्छानुसार ढालने को कृतसंकल्पित नजर आते है। सभी राजनीतिक दलों की अपनी अपनी विचारधारा है लेकिन महात्मा गांधी जैसी दृष्टि और विश्वसनीयता किसी के पास नहीं है। अधिनायकवादी शासन व्यवस्था से त्रस्त म्यांमार के पितामह माने जाने वाले बड़े राष्ट्रवादी नेता आंग सान ने कहा था की, “एक बंटा हुआ हिंदुस्तान सिर्फ  भारतीयों के लिए नहीं बल्कि पूरे एशिया और पूरी दुनिया के लिए अच्छा नहीं है” दांडी पहुंचने के लिए एक भारत की दृष्टि चाहिए।