महाराजा रणजीत सिंह ने एक बार अपने विदेशमंत्री फकीर अजीमुद्दीन से कहा, "ईश्वर चाहता था कि मैं सभी धर्मों को एकनजर से देखें, इसलिए उसने मुझे दूसरी आँख नहीं दी।" अपनी शारीरिक कमी को अपना नैतिक व आध्यात्मिक संबल बनाने का इससे सुंदर दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। इन दिनों लड़ाई सांप्रदायिकता से भी अगली छलांग लगा कर भाषा को भी अपनी गिरफ्त में लेने को ललक रही है। दिवाली आ गई है। आपको दिवाली मुबारक कहना चाहिए या नहीं ? हेप्पी दिवाली कहना चाहिए कि नहीं ? नया साल (क्रिश्चियन) आने वाला है तो नववर्ष की शुभकामनाएं कहें या नया साल मुबारक ? गणतंत्र दिवस की मुबारकबाद देंगे या शुभकामनाएं ? होली मुबारक कहेंगे या होली शुभ हो समस्या आएगी ईद पर ईद की मुबारकबाद दे या शुभकामनाएं ? 15 अगस्त को स्थितियां बेहद जटिल हो जाएंगी। उस दिन क्या कहेंगे ? आजादी मुबारक ? आजादी की शुभकामनाएं। स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं या स्वतंत्रता दिवस की मुबारकबाद या हेप्पी इंडिपेंडेंस डे ? और फिर से दिवाली, दीपावली या जश्न-ए-चिरागां आ जाएगा "जश्न ए रिवाज यानी परंपरा का उत्सव" तो लगातार जारी ही रहता है। किसी विज्ञापन से हट जाने से न तो जश्न की और न ही रिवाज की गर्माहट कम होगी। हाँ कुछ लोग इस गर्माहट को आग में बदलने की असफल कोशिश में जरूर लगे रहेंगे।

शब्द ही तो वह ताकत है जिसमें मनुष्य को ईश्वर बनाने की और जानवर में तब्दील कर देने की दोहरी ताकत मौजूद है। पहले सिख गुरु, गुरुनानक कहते हैं, जैसी में आवे खसम की वाणी।

तैसड़ा करी जान ये लालो

अर्थात ईश्वर ने मुझे जैसा कहने का आदेश दिया, मैं वही आपसे कह रहा हूँ। उनके इस पद पर गौर करिए कितनी भाषाओं/बोलियों का समावेश इसमें नजर आता है ? कभी इस पर ध्यान गया क्या ? नहीं क्यों ? क्योंकि संप्रेषणीयता के उपक्रम में भाषा लिखी नहीं जाती बल्कि भाषा स्वयं को हमसे लिखवाती है। रचनात्मकता के बीच न धर्म की दीवार होती है और न भाषा की भाषा इन सबका अतिक्रमण करती जाती है। विश्वास न हो तो दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंह की इन पंक्तियों पर गौर करिए, आज्ञा भई अकाल की, तभी चलायो पंथ ।।

सब सिखन को हुकुम है, गुरु मानयो ग्रंथ

जो प्रभु को मिल भोज है, खोज शब्द में ले।। शब्द या भाषा की ऐसी महिमा क्या कहीं और मिल सकती है। शब्द या ग्रंथ ने गुरु को भी अपने में समेट लिया। देहदारी गुरु की परंपरा सिख धर्म ने समाप्त कर दी। पवित्र ग्रंथ ही गुरु बन गया। अब ईश्वर की कृपा के इच्छुक इसी ग्रंथ के माध्यम से उसे पा सकते हैं।

जश्न-ए-रिवाज में दिवाली भी आती है और आजादी की सालगिरह भी ईद भी आती है. और गुरुपूर्णिमा भी इसी में नवरोज भी आता है और कार्तिक पूर्णिमा भी कार्तिक पूर्णिमा गुरु नानक का जन्मदिवस भी है तो गौर करिए ग्रंथ साहब में सिख गुरुओं के अलावा अन्य धर्मो जातियों के 36 संत-फकीरों की रचनाएं भी मौजूद हैं। इनमें बंगाल के जयदेव, अवध के गुरुदास महाराष्ट्र के नामदेव त्रिलोचन व परमानंद, उत्तरप्रदेश के बैनी, रामानंद, पीपा, सैन, कबीरदास रविदास व भीकन, राजस्थान के धन्ना और पंजाब के बाद इनमें कबीर जुलाहा थे, नामदेव दर्जी, सदना कसाई, सैन नाई तो रवि 2/4 ) थे। धन्ना जाट थे तो पीपा एक राजा थे। बाबा फरीद एक मुस्लिम फकीम यता भीक इस्लाम के विद्वान जयदेव एक हिंदू रहस्यवादी कवि थे। क्या ग्रंथ साहब में सिवाय उनकी वाणी और विचार के किसी और भी चीज का ध्यान रखा गया ? गौर करिए जब हम श्रद्धा से सिर झुकाकर ग्रंथ साहब को पढ़ रहे होंगे या सुन रहे होंगे तो क्या हमारे सामने धर्म या भाषा की भिन्नता का ख्याल आएगा ? हिन्दुस्तान में तो हर ओर जश्न ए रिवाज या परंपरा के उत्सव का ही बोलवाला है।

इसे जश्न-ए-रिवाज ही तो कहेंगे जो अल्लामा इकबाल ने श्रीराम पर अपनी नज्म,

इमाम ए हिन्द में लिखा है, राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज,

अहल एनजर समझते हैं इसको इमाम ए हिंद ॥ रसखान इस जश्न को नया परवान देते हुए कहते हैं, (गौरतलब है रसखान का असली नाम सैयद इब्राहम था)

"मानुष हो तो वही रसखानि/बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन / जो पशु हो तो कहा वश मेरों/चरों नित नन्द की धेनु मंझारन पाइन हो तो वही गिरी को जो धरयो/ कर छत्र पुरन्दर धारन/ जो खग हो तो बसरो करों मिली, कालिन्दी कूल कदम्ब को डारन

रहीम कहते हैं,

जिहि रहीन मन आपुनो, कीन्हों चतुर चकोर । निसी बासर लाम्यो रहो, कृष्ण चन्द्र की और

नजीर अकबराबादी तो यहां तक कहते हैं,

है सबका खुदा सब तुझपे फिदा

अल्लाहो गनी, अल्लाहो गनी

हे कृष्ण कन्हैया, नन्दलाला

अल्लहो गनी अल्लाहो गनी।। उपरोक्त सभी ऐसे कवि हैं जो गैर हिन्दू या इस्लामी शासन में अपनी बात अपनी अपनी जुबान में कह रहे हैं। वे किसी दबाव में नहीं हैं। वे परंपरा का उत्सव यानी जश्न-ए रिवाज ही तो मना रहे हैं। इतना ही नहीं सच्ची परंपराएं कितनी मोहक और गहरी पैठ लिए हुए होती हैं कि अली सरदार जाफरी जैसे वामपंथी विचार वाले शायर भी लिखते है

अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए

तो फितनगरों का काम तमाम हो जाए|

मिटाए बिरहमन शेख तफरुकात अपने

जयाना दोनों घरों का गुलाम हो जाए।

क्या अब भी कोई सवाल बचता है किसी भाषा को धर्म या सांप्रदायिकता के नजरिए से देखने का जश्न ए रिवाज और परंपरा का उत्सव क्या दो अलग अलग स्थितियां हैं ? वस्तुस्थिति तो यही है कि बहुसंख्य समाज को इस कदर डरा दिया गया है कि उसने जबरिया चुप्पी को ही अपनी भाषा बना लिया है। यह बात ताकतवरों पर भी लागू होती है। क्योंकि तनिष्क और फेब इंडिया दोनों ही ताकतवर है, लेकिन बेतरह डरे हुए हैं। वे वजूद और महज जिन्दा रहने को पर्यायवाची मान बैठे हैं। जबकि ये दोनों अलग अलग है। वजूद वह है जिसमें प्राण के साथ आत्मा भी मौजूद है और बिना वजूद का व्यक्ति एक आत्मा विहीन प्राणी मात्र ही है।

भारत में हर त्यौहार अपनी विशिष्टता लिए हुए आता है। यह अलग बात है कि वर्तमान समय में व्यापक बाजार उसे अपने में समेट कर अपने उत्पादों का ब्रांड अंबेसेडर बना लेता है। हर त्योहार और जश्न का जैसे अंतिम उद्देश्य अब खरीददारी ही बन कर रह गया है। गौरकरिए दीपावली पर होने वाले पारंपरिक स्नान की विधि है। "नरक से बचने के लिए तेल मालिश कर स्नान करना चाहिए। सिर पर कार्टदार झाड़ियों को घुमाना चाहिए और इनके साथ जोती हुई भूमि की मिट्टी एवं कांटे भी होने चाहिए। याद रखिए जश्न या उत्सव सिर्फ समारोहित करने के लिए नहीं बल्कि वास्तविकताओं की जटिलताओं को समझने के लिए भी हैं। खेत की जुती मिट्टी और कांटो का प्रतीक ही वास्तविकता है। परंतु आज

दीपावली या जश्न ए चिरागा सोने, जवाहरात और खरीददारी के नये आयाम इलेक्ट्रानिक सामानों की खरीद का जश्न बन कर रह गया है। रिवाज में विचार होता है जो जश्न को राह दिखाता है। आजादी और विभाजन के पूर्व पंजाब में आपसी स्नेह को सलमान सैयद की इन पंक्तियों में देखिए

बहुत पुराणे, टुट्टे भज्जै/ काई लगे इक मंदिर ते बैठे होए दो कबूतर / आपस दे विच गला करदयां / इक दूजे तो पुछदे रहंदे इस मंदिर दा वाली कौन ? इस मंदिर दा वारिस कौन ?/ किधरों कोई जवाब न आदा/मंदिर अपनियां अक्खां देविच/मोटे-मोटे अथर भर के / आसमान वल तकदा रहंदा / तकदा रहदा/ रोंदा रहदा।।" भाषा भी तो एक मंदिर ही है। आज उस पर सांप्रदायिकता की काई जम रही है। हम कबूतरों की मानिंद एकदूसरे से पूछताछ ही करते रह रहे हैं। जबकि भाषा आज आहत है। वह खंडहर में तब्दील होने के कगार पर है। उस पर पत्थर फेंके जा रहे हैं। उसे नष्ट किया जा रहा है। याद रखिए भाषा ही है जो हमें जानवरों से अलग करती है, उनसे श्रेष्ठ बनाती है। परंतु आज की स्थितियां ? दुष्यंत कुमार कहते हैं,

कहां तो तय था चिरांगों हरेक घर के लिए,

कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए, यहां दरखतों के साये में धूप लगती है, चलों यहां से चलें और उम्र भर के लिए।।"

इस गजल के अंत में वे लिखते हैं,

"जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर तले

मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।।" यह दिवाली हमारे सबके लिए नई चुनौती लेकर आई है। हमें अपने रिवाजों अपनी परंपराओं पर हो रहे हमलों से सावधान रहना होगा, इनसे निपटना होगा और एक दुसरे से कहना होगा

जश्न-ए-चिरांगा की शुभकामनाएं, दीपावली आपको मुबारक हो।