नर्मदा घाटी में बॉक्साइट जैसे खनिजों की मौजूदगी भी नर्मदा के लिए संकटों की वज़ह बनी है। नर्मदा के उदगम वाले क्षेत्रों में 1975 में बॉक्साइट का खनन शुरू हुआ था। जिसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हुई। जहां बालको कम्पनी ने 920 हैक्टर क्षेत्र में खुदाई कर डाली है वहीं हिंडालको ने 106 एकड़ क्षेत्र में खनन किया था। अब खनन कार्य पर रोक लगा दी गई है परन्तु तबतक पर्यावरण को काफी क्षति पहुंच चुकी थी। 

दिसंबर 2016 में डिंडोरी जिले में बॉक्साइट के बङे भंडार का पता चला था। इसका पता लगते ही भौमिकी एवं खनकर्म विभाग ने जिले के दो तहसीलों में बॉक्साइट की खोज अभियान शुरू कर दिया था। इस खनन का विरोध होने के कारण मामला शांत है।अपर नर्मदा बेसिन के डिंडोरी और मंडला जिले में वनस्पति और जानवरों का जीवाश्म बहुतायत में पाये जाते हैं। जानकार बताते हैं कि दोनों ज़िले अंतराष्ट्रीय महत्व के स्थल हैं। यहां जीवाश्म सबंधि कई महत्वपूर्ण खोज हुई है और बहुत सा शोध कार्य होना बाकी है।

इसके अलावा ये जिले कान्हा नेशनल पार्क और अचानकमार- अमरकंटक वायोसफियर रिजर्व को जोङता है। बॉक्साइट खनन जैसे भावी खतरों के अलावा यहां मुरम और लाल - पीली पाया जाना भी पहाड़ के नंगे होते जाने का कारण है। रेत खनन जैसे मौजूदा हमले नर्मदा बेसिन को खोखला बना रहा है।बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय के सरोवर विज्ञान ने नर्मदा के तटीय क्षेत्रों पर किए गए अध्ययन में बताया है कि नर्मदा के तटीय क्षेत्र जो कभी 500 से 1000 मीटर तक हुआ करते थे वे अब सिमटकर बिलकुल किनारे तक आ गए हैं। 

मध्य प्रदेश में रेत के वैध कारोबार से राज्य सरकार को प्रतिवर्ष लगभग 1200 करोड़ रुपए की आय होती है। दूसरी ओर एक आंकलन के अनुसार मध्य प्रदेश में अवैध रेत खनन के कारण राज्य सरकार को लगभग 600 करोड़ रुपये का राजस्व हानि प्रति वर्ष होता है।स्थानीय समुदाय ही नदी को अवैध रेत खनन से बचा सकता है। इसलिए निगरानी के लिए बनने वाली समितियों में स्थानीय लोगों को अनिवार्य तौर पर शामिल करना चाहिए।

रेत की तुलना में प्रमुख खनिज के तौर पर सूचीबद्ध कोयले के लिए पर्यावरणीय अनुमती सख्त है। माइन्स एंड मिनरल रेगुलेशन एक्ट 1957 में प्रमुख और उपखनिज को परिभाषित किया है। 1957 से अबतक स्थिति बदल चुकी है और रेत का इस्तेमाल कई गुणा बढ गया है। रेत खनन के कारण पर्यावरण पर हो रहे असर की व्यापकता को देखते हुए इसे लघु नहीं, बल्कि प्रमुख खनिज में शामिल कर सख्त पर्यावरणीय अनुमति का प्रावधान किया जाना चाहिए। वर्तमान दौर में नदियां कम्पनियों, कॉर्पोरेट्स और सरकार के मुनाफा कमाने का साधन बन चुकी है।

नदियों का प्रशासकीय प्रबंधन की जगह पर्यावरणीय प्रबंधन की दृष्टी से निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए। जिसमें पारिस्थितिकीय तंत्र, जलवायू परिवर्तन और जैव विविधता की समझ रखने वाले विशेषज्ञ को शामिल किया जाना आवश्यक है। मध्य प्रदेश में नई खदानों की घोषणा को लेकर अधिनियम 2022 में प्रावधान किया गया है कि चिह्नित रेत खदान की जानकारी के आवेदन मिलने के बाद कलेक्टर द्वारा इसकी जांच कराई जाएगी, और जब उचित लगेगा तो खदान घोषित की जाएगी। रेत खदान घोषित करने के पूर्व ग्राम पंचायत और नगरीय निकाय से अभिमत लिया जाएगा और इस प्रयोजन के लिए एक औपचारिक आदेश जारी किया जाएगा। यदि संबंधित ग्राम पंचायत और नगरीय निकाय की ओर से 15 दिन की अवधि में कोई अभिमत नहीं मिलता है तो कलेक्टर इसमें आपत्ति न मानकर गैर अधिसूचित क्षेत्र में नई खदान घोषित कर सकेंगे। 

अगर आपत्ति प्राप्त होती है तो कलेक्टर आपत्ति का निराकरण कर खदान घोषित करने के लिए फैसला करेंगे। इसके लिए ग्राम सभा की सहमति और एनओसी लेना जरूरी होगा। सैंड माइनिंग फ्रेमवर्क- 2018 के अनुसार देश में लगभग 700 मिलियन टन रेत की मांग का आकलन किया गया है। इसमें 6-7 प्रतिशत प्रतिशत की दर से मांग बढ़ने का अनुमान लगाया गया है। अत्यधिक रेत खनन से पानी की गुणवत्ता और भूजल पुनर्भरण को प्रभावित करने के अलावा, जलीय आवास और सुक्ष्म जीवों को नुकसान पहुंचाता है। इससे जलीय पौधे और सुक्ष्म जीवों के साथ नदी तंत्र की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होती है। परिणामस्वरूप जीवों की भोजन आपुर्ती में कमी से इनकी संख्या में कमी आती है और स्थानीय रूप से इसके विलुप्त होने का खतरा पैदा होता है।

देशभर की नदियों में बङे पैमाने हो रहे रेत खनन की निगरानी बङा मुद्दा है। खनन विभाग, प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड, सिंचाई विभाग और पुलिस विभाग सभी खनन की निगरानी के लिए जिम्मेदार हैं। हर जिले में कलेक्टर की अध्यक्षता में टास्क फोर्स बनाई गई है। परन्तु इसके लिए कोई केन्द्रीय व्यवस्था नहीं है। प्रदेश की अधिकतर नदियों का जल स्तर घट रहा है और समय से पहले जल प्रवाह दम तोड रहा है। वर्ष 1985 में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय बनने के 40 साल बाद भी हमने नदियों पर अनुसंधान के लिए एक संस्थान तक तैयार नहीं किया है।

(लेखक राज कुमार सिन्हा "बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ" से जुड़े हुए हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)