पेगासस जासूसी कांड अपने आप में कोई एक पृथक घटना, स्थिति, परिस्थिति के आकलन का विषय नहीं है, बल्कि यह वैश्विक राजनीति, जिसका भारत भी हिस्सा है, में लोकतंत्र की घटती स्वीकार्यता का एक छोटा सा प्रतीक भर है। पेगासस युद्ध स्तरीय साफ्टवेयर को इस्तेमाल करने वाले 40 देशों की सूची पर गौर करें तो यह समझ आ जाएगा कि इसका प्रयोग करने वाले अधिकांश देश वे हैं, जहां या तो लोकतंत्र नहीं है, या उसकी स्थिति संतोषजनक नहीं है। अतएव हमें भारत के संदर्भ में भी यह विचार करना होगा कि हम अपने लोकतंत्र को यदि जीवंत व सकारात्मक मानते हैं तो, हमारी सरकार ने इसका प्रयोग क्यों किया? परंतु शायद बात ‘‘क्यों’’ पर आकर पूरी नहीं होती। इससे भी बड़ी व महत्वपूर्ण बात यह है कि एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार ऐसा कर पाने की हिम्मत ‘‘कैसे‘‘ जुटा पाई ? क्या भारत में अब सबकुछ बहुमतवाद से ही तय होगा ? संवैधानिक संस्थाओं और उन्हें दिशा प्रदान करने वाले संविधान का अब ख्याल नहीं रखा जाएगा ? भारतीय नागरिक की ‘‘गरिमा’’ क्या कुछ भी मायने नहीं रखती ? 

भारतीय सभ्यता पर आधारित तर्कशास्त्र का मानना है कि ‘‘सत्य’’ तो हमेशा स्थापित ही रहता है, उसे सिद्ध करने की अलग से कोई आवश्यकता नहीं है। आपको उस तक पहुंचने का मार्ग खोजना होता है। अतएव यह तो स्पष्ट ही है कि ‘पेगासस जासूसी कांड’’ भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर सीधी चोट कर रहा है। इसकी सूची में कौन हैं या कौन नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है। यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि सूची में आए व्यक्तियों की वास्तव में जासूसी हुई है या नहीं, महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह की जासूसी का विचार ही लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। यह भारतीय संविधान की उद्देशिका में बताए, ‘‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास (धर्म और उपासना) की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता’’ की मूलभूत अवधारणा के साथ ही साथ व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करने के विपरीत आचरण है। 

इस घटना को महज इसलिए स्वीकार या अस्वीकार करना खतरनाक होगा कि इसके माध्यम से कुछ लोगों की जासूसी की गई और उनकी निजता का हनन किया गया या हुआ है। हमें इसे भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त कमजोरी के दृष्टिकोण से देखना और समझना होगा। हमने जिस न्यायपूर्ण व समता आधारित समाज की परिकल्पना की है, यह उस पर सीधा आघात है हमला है। पिछले कुछ वर्षाें से राजनीतिक मनमानी का नया और भीषण दौर हम पर कहर बरपा रहा है। जीएसटी का गलत तरीके से लागू होना, नोटबंदी से हाहाकार मचना, कोरोना महामारी का कमोवेश असफल प्रबंधन, मँहगाई का नई ऊँचाई पर पहुंचना, बेरोजगारी का आजादी के बाद सर्वाधिक होना आदि ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जो अपनी कहानी स्वयं कह रहे हैं। पेगासस जासूसी इसी तरह की अलोकतांत्रिक व शासन की असफलता का नवीनतम प्रतीक है। इस स्तर की जासूसी करवाने के पीछे कहीं न कहीं यह तथ्य मौजूद है कि देश में असंतोष बढ़ता जा रहा है। अतएव आवश्यकता इस बात की थी कि असंतोष के कारणों को खोजा जाए व असहमति रखने वालों से संवाद किया जाए, न कि उन्हें जेल में बंद कर दिया जाए या उनकी जासूसी करवाई जाए।

परंतु ऐसा करने के लिए बेहद साहस व सत्यनिष्ठा की आवश्यकता होती है और इसी के साथ सरकार का लोकतांत्रिक मूल्यों में अगाध विश्वास भी होना चाहिए। गौरतलब है, यह बात प्रत्येक राजनीतिक दल पर लागू होती है। विनोबा एक बड़ी मार्के के बात कहते हैं, ‘‘गांधी जी आए और गये, पर हमारे चिन्तन का राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक चिन्तन का स्तर सभी क्षेत्रों में वही पुराना रहा। आज भी सारा दारोमदार सेना, पुलिस, राजतंत्र और सरकार पर ही माना जाए तो गांधी जी के आने से लाभ ही क्या हुआ ? यह नहीं कि सरकार की जिम्मेदारी हम न उठायें। वह तो उठानी ही चाहिए और हमने उठा ही ली, यह ठीक ही किया। किन्तु उतने से अहिंसा नहीं आएगी।’’ इस उद्धहरण के आखिरी शब्द ‘‘अहिंसा’’ पर गौर करिए। विनोबा, गांधी के उस कथन को स्पष्ट कर रहे हैं कि एक राष्ट्र व व्यक्ति की चरम उपलब्धि ‘अहिंसा’ है। जबकि पेगासस एक किस्म की हिंसा हंै जो भारतीय नागरिकों पर अप्रत्यक्ष रूप से थोपी गई है। प्रत्येक जनविरोधी कार्य एकतरह की हिंसा ही तो है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना अहिंसा प्राप्त करने के लिए हुई है परंतु यह अभी दूर की कौड़ी है।

पेगासस पर लौटते हैं। यह एक ऐसा अभूतपूर्व कांड है जो समदर्शी है। यह अपने विरोधी और समर्थक में फर्क नहीं करता। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि इस जासूसी कांड का निर्देश या आदेश देने वाला व्यक्ति नितांत अकेला है और वह अंततः स्वयं के अलावा किसी अन्य की गरिमा के बारे में सोचता विचारता नहीं है। चूंकि सरकार ने स्वीकार नहीं किया है और न ही अस्वीकार किया है कि वह इस घटना से जुड़ी है या जुड़ी नहीं है ऐसे में सबकुछ अनुमान पर ही आधारित है। अनुमान कल्पना के साथ ही साथ अफवाहों को भी जन्म दे सकते हैं। ‘मजाज’ लखनवी की एक लंबी नज्म है ‘‘आवारा’’। उसकी कुछ पंक्तियों पर गौर करिए,

मुफलिसी और ये मजाहिर (दृष्य) हैं नजर के सामने 

सैकड़ों सुलताने-जाबिर (उत्पीड़क सुलतान) हैं नजर के सामने 

सैकड़ों चंगेजों - नादिर हैं नज़र के सामने, 

ऐ गम दिल क्या करुं, ऐ वहशते - दिल क्या करुँ

आज की पूरी दुनिया का मंजर हमारे - आपके सामने है और समस्या यही कि ‘‘क्या करुँ’’। पेगासस के पिटारे की सड़ांघ चारों और फैल गई है और हर तरफ बेचैनी है। परंतु पेगासस एक बड़ी बीमारी का लक्षण भर है। हमें सोचना होगा कि इस लक्षण से जो बीमारी हमारे सामने आई है, उसका उपचार करें या इसे पूरे शरीर यानी लोकतंत्र के पूरे ढांचे में फैलकर उसे खोखला हो जाने दें। इस तरह का हर नया लक्षण हमारें लोकतंत्र की प्रतिरोधक शक्ति को भस्म करा रहा है और हम उसका एकमात्र हल चुनावी राजनीति यानी चुनाव में जीत या हार में ढूंढ रहे हैं।

गांधी इस बीमारी को समझ चुके थे और वे उसका उपचार भी जानते थे। वे जानते थे कि लोकतंत्र को अंततः अहिंसक समाज की स्थापना की दिशा में कार्य करना होगा। परंतु आज तो ठीक इसका उल्टा हो रहा है। दो देशों के बीच होने वाले हिसंक संघर्ष भी निंदनीय हैं, लेकिन भारत में तो दो राज्यों, असम व मिजोरम के बीच जो हुआ उसे क्या कहेंगे। हम लोग हमेशा प्रेशर कुकर में लगे सेफ्टी वाल्व की चर्चा करते हैं कि लोकतंत्र में असहमति पर गौर करना लोकतंत्र को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण कारक सेफ्टी वाल्व है। परंतु क्या ऐसा हो पा रहा हैं ? खलील जिब्रान की रचना अल मुआकिब (लोक यात्रा) गांधी के हिंद स्वराज की याद दिलाती है। इसमें साधु कहता है, ‘‘क्या न्याय और मानव निर्मित कानून मुझे हंसने और रोने के लिए बाध्य नहीं करता है ? दीन और दुर्बल अपराधी दंडित होता है, परंतु धनी और समर्थ अपराधी को यश और मान मिलता है। फूल की चोरी करने वाले व्यक्ति को नीच समझा जाता है परंतु भूमि पर बलात् अधिकार करने वाले की वीर की संज्ञा दी जाती है।’’ इसके प्रत्युत्तर में युवक कहता है, ‘‘वन में न कोई न्याय है और न ही किसी प्रकार का दंड विधान ही है। घास-फूस की क्षुद्र छाया को देखकर सरो के वृक्ष यह नहीं कहते, ‘‘घास फूस की छाया प्रसारित संबंधी व्यवहार कानून और अधिकार के विरुद्ध है। मानव निर्मित न्याय विधान लज्जा से उसी प्रकार द्रवीभूत हो जाता है, जिस प्रकार प्रखर धूल में बर्फ पिघल जाती है।’’

गौर करिए यहां जवाब या समाधान साधु के पास नहीं युवक के पास है। इसे ही आज दोहराने की जरुरत है। लोकतंत्र में प्रत्येक चुनौती एक नई संभावना भी लाती है। पाप का घड़ा फूटने का इंतजार कम से कम लोकतंत्र में तो नहीं ही किया जा सकता। ऐसे तमाम राजनीतिक दल जो गांधी विचार या उनसे मिलते जुलते विचारों में यकीन रखते हैं उन्हें लोकतंत्र में अपने विश्वास को नई दिशा देना होगी और चुनावी जीत की राजनीति से उबरना होगा। उन्हें याद रखना होगा कि सत्ता, राजनीति का मुख्य नहीं सह उत्पाद, यानी बाय प्रोडक्ट है। पेगासस जासूसी कांड ने हमें एकबार पुनः राजनीति को समझने और समझाने का मौका दिया है। गांधी समझाते हैं, ‘‘आत्मा में ताकत है, शस्त्र की आवश्यकता नहीं। हमने ही सरकार को सिर पर उठाया है। अगर चाहेंगे तो, फिर नीचे भी पटक सकते हैं। प्रजा के सहयोग के बिना कोई भी सरकार सत्ता नहीं चला सकती।’’ हमें असहयोग आंदोलन को नए सिरे से अविष्कृत करना होगा।