मालेगांव ब्लॉस्ट, बीमारी और अपने बयानों के कारण विवादों में रहने वाली भोपाल की सांसद रही प्रज्ञा ठाकुर को मौत की सजा मिलेगी? भोपाल के राजनीतिक गलियारों में यह सवाल चर्चा में है। हो भी क्यों न, मालेगांव ब्लास्ट मामले में 8 मई को फैसला आना सम्भावित है। इस दिन सभी आरोपियों को कोर्ट में उपस्थित रहने के लिए कहा गया है। कुछ दिनों पहले कुछ प्रतिष्ठित वेबसाइट ने एक खबर जारी कर सबको चौंका दिया था कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में सभी सात आरोपियों पर मौत की सजा देने का अनुरोध किया है। इन सात आरोपियों में एक बीजेपी की पूर्व सांसद प्रज्ञा ठाकुर भी है।
इससे पहले एनआईए सबूत न होने की बात कहती रही है लेकिन अपनी आखिरी दलील में मौत की सजा देने की मांग चौंकाने वाली ही है। मालेगांव धमाका की स्पेशल प्रॉसिक्युटर रोहिणी सालियन ने 2015 में आरोप लगाया था कि इस हमले के अभियुक्तों को लेकर नरमी बरतने के लिए उन पर दबाव बनाया गया। रोहिणी ने एनआईए के एसपी सुहास वर्के पर यह आरोप लगाते हुए कहा था उन पर केस को कमजोर करने का दबाव था ताकि सभी अभियुक्त बरी हो जाएं।
2016 में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा का नाम आरोपपत्र में शामिल नहीं करते हुए क्लीन चिट दे दी थी। 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को जमानत दी। इसी साल इस मामले के मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली है। इन परिस्थितियों को देखते हुए अब सभी की निगाहें 8 मई को कोर्ट के रूख पर टिकी हुई हैं। पूरी संभावना है कि विशेष अदालत 8 मई को फैसला सुना ही देगी। जिस तरह चुनाव के रुझान आते हैं सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द करने की अपील वाली याचिका की सुनवाई में साफ कर दिया कि अब कोई दखल नहीं होगा सिर्फ फैसला आएगा।
कोर्ट की मंशा को भांप कर ही राजनीतिक कयास लगाए जा रहे हैं। संभावित फैसले को देखते हुए फिलहाल प्रज्ञा ठाकुर अलग थलग हो गई हैं। उनके बोल ही विवादास्पद नहीं रहे बल्कि जिस बीमारी के कारण राहत मिली, वह भी संदेह के घेरे में रही। कभी प्रज्ञा के पक्ष में बोलने वाले बीजेपी नेताओं ने फैसले को लेकर कोई बयान नहीं दिया है। यहां तक कि प्रज्ञा ठाकुर के कट्टर समर्थकों के आक्रामक तेवर भी गायब हैं। साफ है कि फैसले जो भी हो यही कहा जाएगा कि कोर्ट ने अपना काम किया है। हालांकि, इस फैसले पर आगे अपील से लेकर माफी तक की राह तो खुली है ही।
भोपाल यौन शोषण मामले में बड़ी मछली बचेगी?
मध्यप्रदेश में कॉलेज छात्राओं व युवतियों के यौन शोषण मामले ने सांप्रदायिक रंग ले लिया है। यह लाजमी भी है कि आरोपी सारे एक समुदाय से हैं और फरियादी युवतियां एक समुदाय से। इस मामले मे हिंदूवादी संगठन आक्रामक हैं। लेकिन कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद ने राजनीतिक प्रश्रय और नशे के कारोबार के सवाल उठा कर मामले की धारा ही मोड़ दी थी। अब सकल हिंदू समाज ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, राज्यपाल मंगू भाई पटेल से मुलाकात कर उन्हें ज्ञापन दिया है।
हिंदू संगठनों का आरोप है कि रेप केस का मास्टरमाइंड शारिक मछली है। जिस जगह अवैध गतिविधियां होती थीं उस क्लब 90 का मालिक शारिक का समर्थक है। सकल हिंदू समाज ने इस जघन्य अपराध के पीछे की मूल जड़ दुर्दात अपराधी शारिक मछली को शीघ्र गिरफ्तार करने की मांग की है।
यहां तक तो बात ठीक थी लेकिन जैसे ही शारिक मछली का नाम सामने आया उसके बीजेपी के कद्दावर मंत्रियों के साथ फोटो वायरल हो गए हैं। जो बात दबे-छिपे स्वर में की जा रही थी, वह खुल कर कही जाने लगी। आरोप लगे कि इस पूरे मामले में आरोपियों को बीजेपी के ताकतवर नेताओं का ही साथ मिला हुआ है। यही कारण है कि आरोपियों को संरक्षण देने के आरोप लगाते हुए राजनीतिक आकाओं पर भी कार्रवाई की मांग की जाने लगी है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मासूम बच्चियों का यौन शोषण बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। आरोपी हिरासत में हैं। जांच के लिए एसआईटी बना दी गई है लेकिन पूरा मामला राजनीतिक प्रश्रय का है। सवाल यही है कि बिना राजनीतिक ताकत के कोई मछली बड़ी नहीं होती। तो क्या जिस मुद्दे पर हिंदू संगठन उबल रहे हैं, सरकार या पार्टी ‘तालाब को गंदा करने वाली सभी मछलियों’ पर कार्रवाई करेगी?
आराम और अरमान के बीच गलतियों का आसरा
मध्य प्रदेश की राजनीतिक फिज़ा में मोहन यादव मंत्रिमंडल में फेरबदल की खबरें तैर रही हैं। संभावना जताई जा रही है कि प्रशासनिक तबादलों के बाद मंत्रिमंडल में भी फेरबदल होगा। इस फेरबदल में काम के आधार पर कुछ मंत्रियों को हटाया जा सकता है। कुछ के विभाग बदले या कम किए जा सकते हैं और खाली सीट पर कुछ नए मंत्री बनाए जा सकते हैं। इसके साथ ही बीजेपी सरकार और संगठन में बैठकों का दौर जारी है। ये बैठकें निगम, मंडलों आदि में राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर हो रही हैं।
इन बैठकों और संकेतों के आधार पर पद पाने को लालायित नेताओं की जमावट शुरू हो गई है। खाली पदों के लिए तो दावेदारी है ही, कुछ मंत्रियों को हटाए जाने की संभावना को भी एक अवसर माना जा रहा है। इस अवसर को भुनाने के लिए मंत्री पद के दावेदार बीजेपी नेता खासतौर से यह प्रार्थना कर रहे हैं कि सरकार के मंत्रियों से खूब गलतियां हों ताकि उन्हें हटाया जाए और मंत्री पद खाली हो।
ऐसे मंत्रियों में स्वास्थ्य राज्यमंत्री नरेंद्र शिवाजी पटेल भी हैं। पहली बार विधायक बने नरेंद्र शिवाजी पटेल को राज्यमंत्री बनाया गया है। वे अकसर अपनी कार्यप्रणाली के कारण विवाद से घिर जाता है। ताजा मामला ग्वालियर का है। जहां होटल संचालक से विवाद का वीडियो वायरल हुआ और उसके बाद होटल पर छापे की कार्रवाई हुई। होटल संचालक को गिरफ्तार किया गया तो व्यापारी मैदान में आ गए। उनका कहना है कि मंत्री के दबाव में यह कार्रवाई बदला है। इसके बाद राज्यमंत्री नरेंद्र शिवाजी पटेल अपने विरोधियों के निशाने पर आ गए। उनके हर विवाद के बाद कयास लगाए जाते हैं कि ऐसे विवाद पर उनका पद जाना तय है। यही कारण है कि मंत्रिमंडल फेरबदल के संकेतों के बीच ये कामना भी होती है कि मंत्री गलतियां करें और खाली बैठे नेताओं के मंत्री बनने के अरमान पूरे हों।
22 के बदले अब कांग्रेस के अब 53
कांग्रेस विपक्ष में है। संगठन के रूप में बीजेपी की रीति-नीतियों से लड़ने के लिए कांग्रेस संगठन को चुस्त-दुरूस्त होने की जितनी जरूरत है उतनी ही बीजेपी सरकार को घेरने के लिए ताकत की जरूरत है। शायद इसी दर्शन पर काम करते हुए मध्य प्रदेश कांग्रेस ने मीडिया विभाग में बड़ा परिवर्तन किया है।
सोमवार को जारी सूची में मुख्य प्रवक्ता का पद समाप्त कर 53 नेताओं को प्रवक्ता बनाया गया है। इसके पहले 2024 में मुख्य प्रवक्ता सहित 22 प्रवक्ता बनाए थे। अब दुगने से ज्यादा प्रवक्ता हैं। ये अधिकांश युवा हैं। इस तरह कांग्रेस युवाओं को मैदान में उतार कर सरकार और बीजेपी को घेरने के प्रबंध कर रही है।
इन प्रवक्ताओं की राजनीतिक समझ, स्थिति आदि को लेकर कई तरह के प्रश्न उठ रहे हैं। कुछ वरिष्ठ नेताओं को हटाने पर भी राजनीति हो रही है। एक सवाल यह भी है कि क्या इतने अधिक पद बांट देना किसी अव्यवस्था और आपसी प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा नहीं देगा? इतने ज्यादा प्रवक्ताओं के पास काम भी होगा या वर्चस्व की आपसी लड़ाई में ही उलझे रहेंगे?
अधिक संख्या यदि प्रभावशाली हो तो सकारात्मक है अन्यथा नुकसानदेह निर्णय भी हो सकता है। कांग्रेस संगठन के इस निर्णय के बाद अब गेंद नए प्रवक्ताओं के पाले में है कि वे अपनी नियुक्तियों को कितना सही सिद्ध करते हैं।