मध्यप्रदेश की राजनीति में हर दो-तीन माह में बड़ा उठापटक होने की खबरें लहरों की तरह उठती हैं और फिर समय के साथ बैठ जाती हैं। इसबार भी मुख्यमंत्री मोहन यादव, संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा और हेमंत खंडेलवाल की दिल्ली यात्रा और कई बड़े नेताओं से मुलाकात के बाद ऐसे ही कयास लगने शुरू हुए थे। सत्ता-संगठन में तालमेल को लेकर नई दिल्ली में बैठक हुई तब भी यही निष्कर्ष निकाला गया कि लंबे समय से टल रही राजनीतिक नियुक्तियां होने वाली हैं।
इसके साथ ही मंत्रियों के बर्ताव पर भी यह आकलन किया गया कि संगठन कुछ मंत्रियों के कार्य की समीक्षा कर उन्हें हटा सकता है। कमिश्नर-कलेक्टर की कांफ्रेंस के बाद अब मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव मंत्रियों व विधायकों के कामकाज की समीक्षा करेंगे। विभागवार मंत्रियों के प्रदर्शन का आकलन किया जाएगा और इसके आधार पर मंत्रियों के कामकाज की ग्रेडिंग तय होगी।
राजनीतिक आकलन होता है कि खाली बैठ कद्दावर नेताओं को काम देने तथा क्षेत्रीय-सामाजिक संतुलन साधने के लिए पार्टी निगम-मंडलों में भी जल्द नियुक्तियां करेगी। इन नियुक्तियों की उम्मीद में नेताओं की भोपाल दौड़ तथा प्रभावी नेताओं से संपर्क बढ़ जाते हैं। मगर अंतत: सभी खाली हाथ रह जाते हैं। इसबार भी यही हुआ है। अब कयास है कि बिहार चुनाव के बाद ही मध्य प्रदेश में कोई राजनीतिक निर्णय होगा।
विश्लेषण तो यह भी है कि बीजेपी ने ही अपने नेताओं के अरमानों के साथ खेल कर दिया है। जब भी प्रदेश में कोई असंतोष या राजनीतिक मुद्दा गर्माता है, इस तरह की कवायद ध्यान भटकाने में काम आती है। इस बार भी यही हुआ। किसानों की समस्या, भोपाल में मछली कांड जैसे तमाम मसलों पर जब माहौल गर्मा रहा था तब मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों की खबरों को हवा दे दी गई। इस तरह सत्ता–संगठन ने माहौल को तो मैनेज कर लिया लेकिन पद के इंतजार में बैठे नेता हाथ मलते रह गए।
किसान समर्थन का एंटीडोट
विरोध को समर्थन बना लेने की राजनीतिक कवायद किसान विरोध में भी हुई। कुछ दिनों पहले संघ से जुड़े किसान संघ ने मोर्चा खोल कर मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की मुश्किलें बढ़ा दी थी। किसान संघ सिंहस्थ में पक्के निर्माण के लिए किसानों की जमीन को स्थाई रूप से अधिग्रहित करने का विरोध कर रहा है। भारतीय किसान संघ ने प्रदेश सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए उज्जैन में जोरदार प्रदर्शन भी किया था।
उज्जैन के अलावा प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के किसान फसलों के खराब होने तथा उनका मन मुताबिक मुआवजा न मिलने, नकली बीज और खाद के संकट के कारण परेशान रहे। मुश्किलों से घिरे किसानों ने जगह-जगह प्रदर्शन भी किए थे।
ऐसे समय में जब किसानों के नाराज होने तथा बीजेपी सरकार के किसान विरोधी होने की छवि बन रही थी इंदौर में हुआ एक प्रदर्शन एंटीडोट साबित हुआ। मोहन सरकार की भावांतर योजना से खुश हो कर किसानों ने ट्रैक्टर रैली निकाली। रैली एक सभा में बदल गई। सभा में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव वर्चुअली जुड़े। किसानों ने उनका भाषण ट्रैक्टरों पर बैठकर ही सुना। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने कहा कि किसान भावांतर योजना से खुश है। यही कारण है कि इतनी बड़ी संख्या में ट्रैक्टर लेकर यहां आए हैं।
मतलब उज्जैन में हुए विरोध प्रदर्शन की ट्रैक्टर रैली का जवाब देने के लिए इंदौर में ट्रैक्टर रैली निकाली गई। इस रैली का प्रचार भी ऐसा हुआ कि किसान विरोध की खबरें काफूर हो गईं।
हेमंत खंडेलवाल की टीम में सिंधिया गुट
एक तरफ मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का मुद्दा है तो दूसरी तरफ मध्य प्रदेश बीजेपी की नई टीम के गठन की कवायद है। प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभाले हुए हेमंत खंडेलवाल को 100 दिन पूरे हो गए हैं लेकिन सौ दिनों में भी उनकी नई टीम नहीं बन पाई है। यह आकलन भी सच होता नहीं दिखाई दे रहा है कि दिवाली से पहले बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल अपनी नई टीम का ऐलान कर देंगे।
संकेत बता रहे हैं कि प्रदेश अध्यक्ष हेमंत खंडलेवाल ने तो अपनी नई कार्यकारिणी के नामों को फाइनल कर दिया है लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने इसे पूरी तरह मंजूर नहीं किया है। अंदरखाने की खबर है कि कुछ नामों को लेकर दिल्ली की आपत्ति के बाद हेमंत की टीम का गठन अटक गया है। इन नामों में सिंधिया गुट के नेताओं के नाम भी हैं। बताया जाता है कि अब पार्टी में सिंधिया गुट की तवज्जो देने के निर्देश को शिथिल कर दिया है। यानी अब यह जरूरी नहीं होगा कि बीजेपी नेताओं के बदले कांग्रेस छोड़ कर आए नेताओं को प्राथमिकता दी जाए।
इसके पीछे तर्क दिया गया है कि बीते 4-5 सालों में सिंधिया समर्थक नेता बीजेपी में घुलमिल गए हैं। अब पार्टी में वे अलग-थलग महसूस नहीं करते हैं। ऐसे में बीजेपी के मूल नेताओं और सिंधिया समर्थकों में अंतर करना उचित नहीं है। ऐसा कर पार्टी अपने उन नाराज नेताओं को मना सकती है जो सिंधिया समर्थकों को अधिक तवज्जो मिलने से पार्टी की गतिविधियों से दूर हो गए हैं। यदि यह तर्क माना गया तो तय है कि हेमंत की टीम में सिंधिया समर्थकों को कम पद मिलेंगे। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी नेताओं और सिंधिया समर्थकों में वर्चस्व का संघर्ष और तेज होगा जैसा बुंदेलखंड में जारी है।
सत्ता संघर्ष में अधिकारों की शेयरिंग
बीजेपी की कार्य प्रणाली को देखते हुए यह कहन प्रचलित हो गया है कि बीजेपी के नेताओं को सत्ता में रहना भा गया है। वे किसी भी तरह से जोड़-तोड़ कर अपनी सत्ता कायम रखने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है विदिशा में।
विदिशा नगर पालिका में पार्षदों के दो गुटों के बीच करीब एक वर्ष से जारी खींचतान अविश्वास प्रस्ताव लाने तक पहुंच गई थी। नपा अध्यक्ष प्रीति शर्मा के साथ खड़े पार्षदों ने दूसरे गुट के पार्षदों से हाथ मिला लिया कर कलेक्टर से मुलाकात कर अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का आवेदन सौंप दिया था। कांग्रेस और बीजेपी के पार्षदों ने जब फिर अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी की तो नगर पालिका अध्यक्ष प्रीति शर्मा ने ‘बीमारी' का हवाला देते हुए अपने अधिकारों का प्रभार उपाध्यक्ष संजय दिवाकीर्ति को सौंप दिया। यानी की उपाध्यक्ष संजय दिवाकीर्ति वित्तीय और कार्यकारी प्रभार पा कर ताकतवर हो गए हैं।
असल में यह बीजेपी की अंदरूनी राजनीति में शह-मात का खेल है। अध्यक्ष प्रीति शर्मा भी बीजेपी से है और उनका विरोध करने वाले पार्षद भी बीजेपी से है। अपनी ही पार्टी की अध्यक्ष के खिलाफ लामबंद हुए बीजेपी पार्षदों को समझाने के जतन पार्टी के स्तर से भी हुए। इस तरह पार्षदों के विरोध को शांत करने के लिए अध्यक्ष की ताकत को कम करने का रास्ता खोजा गया। अध्यक्ष प्रीति शर्मा बीमार है या नहीं, यह अलग बात है लेकिन उन्होंने अपने विश्वस्त उपाध्यक्ष को अधिकार दे कर अपना नियंत्रण बरकरार रखने का जतन किया है।
यह अकेली विदिशा नगर पालिका का मामला नहीं है। इसके पहले राजगढ़ सहित अन्य नगर पालिकाओं में बीजेपी में अंदरूनी असंतोष बढ़ रहा है। बीजेपी के पार्षद ही अपने अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल रहे हैं। विदिशा ने समझौते की एक राह दिखाई है। संभव है कि यह फार्मूला अन्य निकायों में भी दिखाई दे।