श्री राम चरित मानस के अनुसार श्री राम प्रेम के बिना ज्ञान की शोभा वैसे ही नहीं होती जैसे कर्णधार के बिना जलयान की शोभा नहीं होती। भगवान के अवतार के अनेकानेक प्रयोजनों में एक यह भी प्रयोजन है श्रीमद्भागवत में
 भक्ति योग विधानार्थं
बड़े-बड़े अमलात्मा मुनीन्द्रों को, जो ज्ञान पथ के पथिक हैं, उन्हें भक्ति में प्रवृत्त करने के लिए ही प्रभु का मनुष्यावतार होता है। भगवान के प्रति विशुद्ध प्रेम का एक बड़ा ही सुन्दर उदाहरण महारास के अवसर पर देखने को मिलता है।श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में रासलीला के समय योगीन्द्र मुनीन्द्र वंदित पादारविंद लीलाविहारी प्रभु अन्तर्धान हो गए। उनके अन्तर्धान हो जाने से श्री व्रजांगनाएं शोक विह्वल हो गईं। और अपने परप्रेमास्पद प्राणधन श्याम सुन्दर के विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से दुःखी होकर इधर-उधर भटक रही थीं और लता तरुओं (वृक्षों) से अपने श्यामसुन्दर का पता पूछती हैं कि हे तरुओं! आपने हमारे प्राण-प्यारे को इधर कहीं जाते देखा हो तो बताओ।हम आपका बड़ा अनुग्रह मानेंगी। इतने में भगवान श्री कृष्ण उनकी प्रेम परीक्षा लेने के लिए दिव्य चिन्मय वस्त्र आभूषण और अलंकार से अलंकृत होकर सौन्दर्य निधि विष्णु के रूप में प्रकट होकर उनके सामने आए।

अब तो भगवान विष्णु को देखते ही व्रजांगनाएं संकुचित हो गईं और और घूंघट में अपना-अपना मुख छिपा लिया। उनके इस व्यवहार को देखकर मायातीत परमात्मा भक्तों के प्रिय भगवान विष्णु ने कहा-व्रजांगनाओं! क्यों सकुचा रही हो? आओ, हमारे साथ रासलीला में सम्मिलित होवो। तुम्हारे श्याम सुन्दर से हमारी शोभा कुछ कम है? इस प्रकार अनेकानेक प्रलोभन दिए, किन्तु उनके किसी भी प्रलोभन में न आकर गोपियों ने भगवान से प्रार्थना की और बोलीं कि हे चार भुजा के देवता! यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं तो हमें हमारे श्याम सुन्दर का दर्शन करा दीजिए। तब उन्हें प्रेमपरीक्षा में उत्तीर्ण समझकर भगवान मंगलमय श्री कृष्ण चंद्र के रूप में प्रकट हुए और रासलीला प्रारंभ हुई। इन महाभाग व्रजांगनाओं की चित्त वृत्ति ही श्याममयी बन गयी थी। श्री देव कवि ने वर्णन किया है-
औचक अगाध सिन्धु 
स्याही कौ उमड़ि आयो,
तामें तीनों लोक बूड़ि 
गयो एक संग में।

और इसी के अन्त में
 

यों ही मन मेरो मेरे 
काम को रह्यो न माई,

श्याम रंग ह्वै के समानों श्याम रंग में
अभिप्राय यह है कि गुण दोष का पर्यवेक्षण छोड़कर परमानंद रस सार सिंधु सर्वस्व में डुबा हुआ प्रेमी सर्वत्र अपने परम प्रियतम प्रेमास्पद प्रभु को ही देखता है। उसे समस्त नाम रूप क्रियात्मक प्रपंच का भान ही नहीं रहता। ऐसे ही एक व्रज गोपी का कथन है कि-
जित देखौ तित श्याम मयी है
इस स्तर के भगवत्प्रेम की प्राप्ति जब हो जाती है तब ज्ञान में और प्रेम में अन्तर नहीं रह जाता। क्यूंकि ज्ञानी की दृष्टि भी सर्वत्र ब्रह्ममयी होती है और प्रेमी को भी सर्वत्र अपने प्रेमास्पद का दर्शन होता है।