श्री राम चरित मानस में पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्रीराम नाम की महिमा को अनंत बतलाया है।गोस्वामी जी राम नामकी वंदना करते हुए कहते हैं : 

वंदउं नाम राम रघुवर को। हेतु कृशानु भानु हिमकर को।।

अर्थात् राम नाम कृशानु=अग्नि,भानु=सूर्य,हिमकर=चन्द्रमा का कारण है। यहां कारण का अर्थ बीज होगा। अ से लेकर ह तक जितने भी अक्षर हैं उनमें अनुस्वार लगाकर बीजमंत्र बनता है। अग्नि का बीज रं, सूर्य का बीज अं, और हिमकर चन्द्र का बीज मं है, इन तीनों र अ म को  मिला देने से राम नाम बनता है। और यही क्रमशः तीनों अवस्थाओं जागृत, स्वप्न, और सुषुप्ति का अभिधान है- 

राम भक्ति जहं सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा।।

अर्थात् प्रयाग में गंगा, यमुना तथा सरस्वती का संगम है। भक्ति की धारा ही गंगा की धारा है। वेदांत के अनुसार ब्रह्म विचार ही सरस्वती हैं और विधि निषेध मय शास्त्र ही यमुना जल है।

यह विधि निषेधात्मक शास्त्र जीवन के लिए अति आवश्यक है। इसके बिना मनुष्य, जो करना चाहिए उसे छोड़ देगा और जो नहीं करना चाहिए उसे करने लगेगा, जिससे अनर्थ की संभावना बनी रहेगी। शास्त्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करने का लाभ क्या होता है इसके लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है।

एक  ब्राह्मण गरीबी में थे लेकिन लेकिन दान नहीं लेना चाहते थे, सोचा कि चोरी कर लें लेकिन किसी धनवान के घर में, जिससे उसको कोई फर्क न पड़े। सो चले और राजा के घर में सेंध लगाई। अन्दर घुसे राजा के शयन कक्ष में पहुंचे राजा सो रहा था और नींद में ही एक श्लोक बड़बड़ा रहा था।

 चेतो हरा युवतय:सुहृदोनुकूला:, सहबान्धवा: प्रणतिनम्रगिरश्च भृत्या:।

गर्जन्ति दन्त निवहा:तरलास्तुरंगा

इसका अर्थ है कि मेरे महल में चित्त का हरण करने वाली युवतियां हैं, मेरे अच्छे मित्र हैं, बान्धव जन भी हितैषी हैं तथा मेरा ऐश्वर्य अपरिमित है। यह तीन चरण बन पाया और राजा तीनों दीवार पर लिखकर सो गया और सोचा कि चौथा चरण सबेरे बनाएंगे। पंडित जी ने देखा तो चौथा चरण बना दिया।

 उन्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति

अर्थात् मृत्यु के समीप आने पर कुछ भी काम नहीं आएंगे। इतना लिखने के बाद वे चोरी करने चले। अब जो चीज़ उठाते, शास्त्र याद आ जाता कि इस वस्तु की चोरी से यह पाप लगता है और इसकी चोरी से यह पाप लगेगा। सो अपनी गाय के लिए गोशाला में गये और अपने दुपट्टे में भूसा बांध लिया और अपने घर पहुंच गए। लेकिन दुपट्टा फटा था सो भूसे की लाइन  पंडित जी के घर तक बन गई और सवेरे पंडित जी पकड़े गए।

इधर राजा उठने पर अधूरा श्लोक पूरा करने चला तो देखा कि वह तो पूरा हो चुका है। वह उस लाइन से प्रभावित हुआ। मध्याह्न में दरबार में चोरी के जुर्म में पंडित जी को पाकर उनसे माफी मांगी और अपना सारा धन योग्य व्यक्तियों को दान में दे दिया।

इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति को विधि निषेध का ज्ञान होना चाहिए और तदनुसार आचरण से सदैव लाभ होता है।