सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका

सत्य और शील ही इस धर्म रथ के ध्वजा और पताका हैं।

भगवान श्री राम शील के निधान हैं। एक बार भगवान श्रीराम जंगल में एक वृक्ष की छाया में विराजमान थे। जिस वृक्ष की छाया में श्रीराम जी बैठे थे उसी वृक्ष के ऊपर बंदर चढ़कर बैठ गए। और उनकी लम्बी-लम्बी पूछ भगवान श्रीराम के ऊपर लटक रही थी। और कोई दूसरा स्वामी होता तो पूंछ पकड़-पकड़ कर नीचे उतार देता, लेकिन श्री राघवेन्द्र ने तो उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। उल्टे लंका विजय के पश्चात जब श्री अवध की यात्रा होने लगी तो इन वानरों ने प्रभु से निवेदन किया कि भगवन् हम भी आपके साथ श्री अयोध्या जी चलना चाहते हैं। तो प्रसन्नता पूर्वक प्रभु ने उन्हें श्री अवध जाने की अनुमति दे दी।

वानरों के आग्रह को तो प्रभु ने स्वीकार कर लिया लेकिन एक आग्रह प्रभु ने भी किया इनसे। बोले कि आप चल तो रहे हैं लेकिन राज दरबार का नियम अलग होता है, वहां आप लोगों को हमारे गुरुदेव महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करना पड़ेगा। सबने स्वीकार कर लिया। परन्तु जब प्रणाम करने का अवसर आया तो बंदरों ने भगवान श्रीराम से पूछा कि प्रभु! कैसे प्रणाम करें? तो बोले कि दोनों पैर से खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया जाता है। पर ये बंदर तो चार पैर वाले हैं। लेकिन भगवान श्रीराम की आज्ञानुसार वानरों ने अपने दोनों अगले पैरों को जोड़कर हाथ बना लिया और महर्षि को प्रणाम किया।

भला बंदरों को भी कोई सखा कहता है? लेकिन ये श्री राघव का सौशील्य है कि वे जब गुरु वशिष्ठ से बंदरों का परिचय कराते हैं तो कहते हैं कि गुरु देव! ये हमारे सखा हैं- ये सब सखा सुनहु मुनि मेरे

जब किसी व्यक्ति का वैभव बढ़ जाता है ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा बढ़ जाती है तो वह अपने पुराने मित्रों से मिलने में संकोच करता है और उनका परिचय तो किसी से कराता ही नहीं, परन्तु भगवान श्रीराम को ज़रा सा भी संकोच नहीं हुआ वे कहते हैं कि गुरु देव! ये सब हमारे सखा हैं। श्रीराम जी ये भी कह सकते थे कि ये सब मेरे सेवक हैं लेकिन वो तो कहते हैं कि -

ये सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कंह बेरे।।

लंका का युद्ध एक समुद्र के समान था उसमें इन्होंने बेड़े का काम किया- मम हित लागि जनम इन्ह हारे। मेरे लिए इन्होंने अपना जन्म निछावर कर दिया। इसलिए- भरतहुं ते मोहिं अधिक पियारे। भरत से भी कहीं अधिक प्रिय हैं ये मुझे। भरत मेरे भाई हैं। भाई के लिए भाई का समर्पित होना, प्राण निछावर करना तो स्वाभाविक है लेकिन इनके साथ तो मेरा कोई सम्बंध नहीं। फिर भी मेरे लिए इन्होंने अपने जीवन का त्याग कर दिया। इसलिए ये हमें भरत से भी अधिक प्रिय हैं। तो राज समाज में भगवान श्रीराम बंदरों की बड़ाई करते हैं।

प्रभु तरु तर कपि डार पर, ते किए आपु समान।

तुलसी कहूं न राम से, साहिब सील निधान।।

भगवान को माना जाता है कि निखिल हेय प्रत्यनीक और अचिन्त्य अनंत कल्याण गुण गणैक निलय हैं। समस्त हेय गुणों के विरोधी और अचिन्त्य अनंत कल्याण गुण गणों के एक मात्र आश्रय हैं भगवान श्रीराम। तो उन गुणों में से एक गुण है भगवान का सौशील्य। सौशील्य की परिभाषा की गई है कि आश्रित का त्याग न करना। आश्रित के दोषों को देखकर भी उसका त्याग न करना। चन्द्रमा को भगवान शंकर की प्रियता प्राप्त है। इसका अर्थ ये है कि जो प्रभु हैं वो अपने आश्रितों के दोषों का विचार किए बिना ही उनपर कृपा करते हैं। ये भगवान का सौशील्य है।

सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका