त्रिविध जीव
हमारे शास्त्रों में पामर, विषयी, साधक और सिद्ध चार प्रकार के पुरुष बतलाए गए हैं। जिसे उचित-अनुचित तथा धर्म-अधर्म का कुछ भी विवेक नहीं, जो मन और इन्द्रियां कहती हैं, उसी में प्रवृत्त रहता है वह पामर है। जिसने शास्त्रों का श्रवण करके धर्म-अधर्म के स्वरुप को समझा है और सावधानी से अधर्म से बचते हुए धर्म का पालन करता है, जो मानता है कि अधर्म दु:खों का कारण और धर्म लोक परलोक के सुख का अचूक साधन है, वह विषयी कहलाता है।
भगवत्पादपद्म-समर्पण-बुद्ध्या अनुष्ठित निष्काम कर्मों से जिसका मन पवित्र हो गया है और जो इहलोक और परलोक के सभी प्रकार के भोगों से मन को हटाकर भगवान की आराधना, उपासना अथवा ब्रह्मविचार के द्वारा भगवत्प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है उसे साधक कहते हैं।ब्रह्मसाक्षात्कार सम्पन्न जीवन मुक्त महापुरुष सिद्ध कहलाता हैं। सिद्ध कृतकृत्य होता है। मनुष्य को साधक बनना चाहिए। साधक बनने के लिए यह आवश्यक नहीं  कि गृहस्थाश्रम का त्याग ही किया जाय। गृहस्थ भी साधक हो सकता है। इन्द्रियों और मन को बुद्धि के द्वारा नियंत्रित बनाने की साधना गहस्थाश्रम में भी हो सकती है।
श्रीमद्भागवत में ब्रह्मा जी ने कहा है कि तभी तक राग आदि चोर हैं और गृह कारागार है जब-तक प्राणी श्री कृष्ण का भक्त नहीं बन जाता। पामर को छोड़कर विषयी भी निम्न कोटि के साधक ही है। सिद्ध भी व्यक्ति के रूप में यावज्जीवन साधक ही रहता है। उसमें सिद्धि का अभिमान नहीं होता।
साधक को अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार किसी निश्चित साधना प्रणाली का किसी योग्य गुरु से ज्ञानप्राप्त करके अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को साधना में ही विनियुक्त कर देना चाहिए।