वचनामृत
सजल मूल जिन सरितन्ह नाहीं।
वरसि गए पुनि तबहिं सुखाहीं

जिस प्रकार किसी नदी या नहर की धारा तभी तक प्रवाहित होती है जब तक उसका सम्बन्ध अपने मूल स्रोत से बना रहे। जैसे ही अपने मूल उद्गम से सम्बन्ध टूट जाता है तो वह नदी,नहर सूख जाती है। ठीक इसी प्रकार जीव का मूल उद्गम है परमेश्वर। यदि यह परमेश्वर के साथ सम्बंध रखकर संसार का व्यवहार करेगा तो उसकी शक्ति बनी रहेगी। भगवान से सम्बंध बनाए रखने में तीन लाभ।प्रथम तो आपकी जीवन धारा कभी विच्छिन्न नहीं होगी, दूसरा आपकी बुद्धि कभी समाप्त नहीं होगी,प्रतिक्षण नवीन बुद्धि की प्राप्ति होती रहेगी और तीसरा क्षण-क्षण में आपको आनंद की अनुभूति होती रहेगी। और इसके विपरीत यदि ईश्वर से आपने सम्बंध तोड़ लिया तो आपके जीवन की धारा,ज्ञान-विज्ञान की धारा, बुद्धि की धारा विच्छिन्न होकर क्षीण हो जायेगी और भीतर से आनंद आना बंद हो जायेगा और फिर आप उधार आनंद लेने लग जायेंगे। विषयों से, किसी मित्र के मिलने से। दवाओं से जीवन उधार लेना, पुस्तकों से बुद्धि उधार लेना और विषय भोगों के पराधीन हो जाना-इस बात का द्योतक है कि हमारे भीतर जो जीवन का,ज्ञान का, और आनंद का मूल स्रोत है उससे हम कट गए हैं।
गीता के प्रथम अध्याय में हम देखते हैं कि एक ओर दुर्योधन और दूसरी ओर अर्जुन दिखाई देते हैं। दुर्योधन का व्यक्तित्व कैसा है? नाना प्रकार के दांव-पेंच करके कूटनीति द्वारा धन-प्रपंच से जीवन के व्यवहार को चलाने वाला स्वार्थी मनुष्य। और अर्जुन के व्यक्तित्व पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो देखते हैं कि एक सरल-सीधा-ज्ञानार्जन करने के लिए तत्पर मनुष्य। युद्ध भूमि में दोनों आते हैं और दोनों-दोनों सेनाओं का निरीक्षण करते हैं। दुर्योधन सेना का निरीक्षण करके तत्काल आज्ञा देते हैं कि सबलोग भीष्म पितामह की रक्षा करें और युद्ध की घोषणा हो जाती है। दुर्योधन अपनी युद्ध-घोषणा में यह भी कहते हैं कि यहां मेरे पक्ष में यह जितनी सेना इकट्ठी हुई है, ये सब मेरे लिए मरने को तैयार हैं।  
मदर्थे त्यक्त जीविता:
इनका अर्थ है कि मैं जीवित रहूं, राजा बनूं,मेरा स्वार्थ पूर्ण हो-भले सारी सेना मर जाय,यह दुर्योधन का दृष्टिकोण है। और दूसरी ओर अर्जुन आते हैं उनकी विशेषता यह है कि उनके पास एक सारथी है। पूरी गीता आप पढ़ लें दुर्योधन के सारथी का नाम आपको नहीं मिलेगा। परन्तु अर्जुन के रथ और सारथी दोनों का वर्णन है। उनका सारथित्व स्वयंं श्री कृष्ण करते हैं।
अभिप्राय यह है कि जब भी आप अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ करें तो आपके पास एक रथ हो, उसमें उत्तम घोड़े हों, और एक उत्तम सारथी होना चाहिए। ये अर्जुन और श्री कृष्ण साक्षात् नर और नारायण हैं। ऐसे ही भगवान स्वयं नर और नारायण दो रूपों में प्रकट हुए हैं। एक का नाम जीवात्मा और एक का नाम विश्वात्मा है।यह जीवात्मा युद्ध भूमि में अवतीर्ण हुआ, परन्तु अकेले नहीं। उसने नारायण से कहा कि तुम भी हमारे साथ चलो और हमारे रथ का संचालन करो। तो जो नारायण को अपने रथ का संचालक बनाकर व्यवहार की रणभूमि में अवतीर्ण होता है वही जीवन का आनंद प्राप्त करता है और जो अकेले आता है वह नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। और जो भगवान को साथ लेकर चलते हैं उन्हें जीवन के पग-पग पर सफलता ही सफलता मिलती है।दुर्योधन नारायण को भूलकर और अर्जुन साथ लेकर जीवन के रणक्षेत्र में आते हैं।यह जो हमारा शरीर दिखाई दे रहा है वह केवल हड्डी-मांस का पुतला नहीं है, इसके भीतर समष्टि का संचालक बैठा हुआ है। परमेश्वर बैठा हुआ है। तो हम कोई भी कार्य करें अपने आप को अकेला समझ कर नहीं नारायण को अपना साथी मानकर उसकी मदद से कार्य प्रारंभ करें तो कार्य भी सफल होगा जीवन भी सफल होगा। अपने मूल स्रोत से जुड़ कर हमें रहना चाहिए।
             नर्मदे हर