- span style= color: #ff0000 font-size: large वीरेन्द्र जैन- /span p style= text-align: justify strong ह /strong मारी व्यवस्था में किसी क्षेत्र के चुनाव परिणाम क्षेत्र विशेष में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के बीच सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले को जीता हुआ दिखाते हैं। इन बहुदलीय चुनावों में कई उम्मीदवार कुल बीस प्रतिशत मत पाकर भी जीत जाते हैं और कई 40 प्रतिशत मत पाकर भी हार जाते हैं। इसके विपरीत लहर प्रबन्धित चुनाव परिणामों से नहीं अपितु जनसमर्थन की तीव्रता से जुड़ा होता है जिसमें लाखों एकजुट मतदाता उम्मीदवार की जीत हार को अपनी जीत हार से जोड़ कर देखते हैं। इस विशाल लोकतंत्र में किसी की लहर का मतलब होता है कि उस दल विशेष या नेता विशेष को उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक इतना समर्थन मिलता दिखाई दे कि जो डाले गये मतों में भी कम से कम 40 प्रतिशत मतों से अधिक हो। ऐसी लहर 1971 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस को 43.61 प्रतिशत और सहयोगी सीपीआई को 4.73 अर्थात कुल 48.34 प्रतिशत मत मिले थे जबकि भारतीय जनसंघ को 7.35 प्रतिशत मत मिले थे। 1977 में अनेक दलों के गठबन्धन जनता दल जिसने भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुना लड़ा था को 41.32 प्रतिशत और सहयोगी सीपीएम को 4.29 प्रतिशत मत अर्थात कुल 46.61 प्रतिशत मत मिले थे। 1980 में किसी लहर का आभास नहीं था किंतु जनता दल के आपसी झगड़ों से निराश जनता ने श्रीमती गाँधी के नेत्तृत्व वाली कांग्रेस को 42.69 प्रतिशत मत दिये थे। 1984 में राजीव गाँधी वाली कांग्रेस के पक्ष में जो सहानिभूति लहर उठी थी उसमें कांग्रेस को 49.1 प्रतिशत मत मिले थे जबकि सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा को कुल 7.74 प्रतिशत मत मिले थे। /p p style= text-align: justify यह अनेक प्रमाणों से सिध्द हो चुका है कि भाजपा संघ की मानस पुत्री है और संघ का गठन हिटलर के सिध्दांतों से प्रेरित है व उसका संगठन और कार्य प्रणाली भी लगभग वैसे ही हैं। हिटलर के साथी गोएबल्स का कहना था कि बारम्बार बोला गया झूठ भी सच लगने लगता है और यही कारण है कि इन चुनावों में इस संगठन ने अधुनातन मीडिया का लगातार दुरुपयोग करते हुए यह झूठ फैलाने की कोशिश की है कि उनको व्यापक समर्थन प्राप्त है। इस दुष्प्रचार के लिए उसने कुख्यात नरेन्द्र मोदी की छवि को विकास पुरुष के रूप में बनाने के लिए काफी पहले से प्रयास शुरू कर दिये अम्बानी अडानी से लेकर टाटा की नैनो कम्पनी तक को कोड़ियों के मोल पर जमीनें और अरबों रुपयों की अन्य सुविधाएं देकर गुजरात में आमंत्रित किया और बदले में मोदी के पक्ष में विकास पुरुष का प्रमाणपत्र दिलवाने लगे। गुजरात सरकार की ओर से विभिन्न सूचना माधयमों में सरकारी विज्ञापनों और किराये के अर्थविशेषज्ञों द्वारा विकास की अतिरंजित कहानियां प्रकाशित की जाने लगीं। जो पत्रकार लेखक और बुध्दिजीवी मोदी की निरंतर निन्दा करते रहे थे उनमें से कुछ उनका बिना किसी ठोस तर्क के रातों रात हृदय परिवर्तन ढेर सारी आशंकाओं को जन्म दे गया। भाजपा शासित अन्य राज्यों में भी लगभग ऐसी ही प्रचार योजनाएं कार्यांवित की गयीं और मीडिया को मुक्तहस्त से विज्ञापन दिये गये क्योंकि किसी भी सरकार द्वारा विज्ञापनों में खर्च की जाने वाली राशि का कोई नीति नियम नहीं है। बुन्देली में एक कहावत है कि जितने का कीर्तन नहीं हुआ उससे ज्यादा के मंजीरे फूट गये। भाजपा शासित राज्यों में भी विकास और विज्ञापन का यही हाल है। जब तक गैर भाजपा दल जागे और गुजरात के विकास की कलई खोलने की कोशिश की तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सारी दीवारों पर लिखा जा चुका था या बुक हो गयीं थीं। /p p style= text-align: justify सच्चाई तो यह है कि रामजन्मभूमि के नाम से भाजपा द्वारा चलाये गये अभियान को छोड़ कर भाजपा के पक्ष में कोई एकदम उछाल नहीं आया। उसे 1984 में उसे 7.74 प्रतिशत मत मिले थे तो 1989 में 11.36 प्रतिशत। पर रामजन्मभूमि वाले अभियान और अडवाणी की रक्तरंजित रथयात्रा के दौर के बाद 1991 में 20.11 प्रतिशत 1996 में 20.29 प्रतिशत 1998 में 25.59 प्रतिशत मत मिले। 2004 में उनकी सरकार के इंडिया शाइनिंग के दौर में 22.16 प्रतिशत से घटकर 2009 में 18.80 प्रतिशत पर आ गये थे। उनके गठबन्धान के सहयोगियों को मिला कर भी वे इस समय 25 प्रतिशत के आस पास हैं। लहर के लिए उन्हें कम से कम 15 प्रतिशत और मत चाहिए पर कहानी कुछ और ही कह रही है। इस बार उन्होंने चुनाव से पूर्व ही इतने सारे अल्पज्ञात दल जोड़ लिये हैं जिससे उनकी अपनी प्रचारित लहर पर उनके अविश्वास का संकेत मिलता है। अपनी लहर के प्रचार के सहारे अब तक जिनसे समझौता कर चुके हैं वे 23 दल इस प्रकार हैं और रोचक यह है कि इन दलों को भले ही भाजपा के मत ट्रांसफर हो जायें पर उनके मत भाजपा के पक्ष में ट्रांसफर होने में संदेह है क्योंकि उनका गठन जिस आधार पर हुआ है वे भाजपा की पहचान से मेल नहीं खाते। इस गठबन्धन में हैं- भाजपा 116 शिव सेना11 शिरोमणि अकाली दल 4 नागा पीपुल्स फ्रंट1 हरियाना जनहित काँग्रेस 1 स्वाभिमानी पक्ष 1 एमडीएमके तेलगुदेशम पार्टी रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया-आठवले महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी0 नैशनल पीपुल्स पार्टी 0 राष्ट्रीय समय पक्ष0 गोरखा जनमुक्ति मोर्चा0 केमडीके0 आइजेके0 राष्ट्रीय लोक समता पार्टी0 लोकजनशक्ति पार्टी0 डीएमडीके0 आल इंडिया एनआर कांग्रेस 0 केरल कांग्रेस नैशनलिस्ट0 रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी बोल्शेविक 0 पट्टाई मक्कल कच्ची0 मणिपुर पीपुल्स पार्टी0 यूनाइटिड डेमोक्रेटिक फ्रंट0 अपना दल0 नार्थ ईस्ट रीजिनल फ्रंट0 जनसेना पार्टी0 । इन सब को मिला कर उन्हें नई 160 सीटें और कम से 15 प्रतिशत मत अधिक चाहिए। ये इनके आत्मविश्वास की ही कमी है कि राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी और हेमा मालिनी समेत विनोद खन्ना किरन खेर परेश रावल शत्रुघ्न सिन्हा मनोज तिवारी बप्पी लाहिरी बाबुल सुप्रियो और जॉय बनर्जी को चुनाव में उतारने को विवश होते हैं। पूर्वसैनिक प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों जनरल वी के सिंह आईएएस भागीरथ प्रसाद आर के सिंह और मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर समेत दर्जन भर नौकरशाहों को टिकिट बाँटे हैं। यदि मोदी अपने काम के बल पर लहर होने का दावा कर रहे हैं तो अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं के टिकिट काट कर इतने दलबदलुओं को टिकिट देने की जरूरत क्यों पड़ी। दूसरी जगहों को छोड़ भी दें तो मोदी के मानक गुजरात की 26 सीटों में से दस पर पूर्व कांग्रेसियों को टिकिट क्यों देना पड़ा? इनमें कच्छ से विनोद चावड़ा पूर्व एन एस यु आई एवं युवक कांग्रेस नेता पूनम मदाम - जामनगर - पूर्व गुजरात प्रदेश कांग्रेस महिला महा मंत्री विठ्ठल रादडिया - पोरबंदर - तीन बार कांग्रेस विधायक और एक बार कांग्रेस एम पी रह चुके है देवजी फतेपरा - सुरेन्द्र नगर - पूर्व कांग्रेस विधायक हलवद लीलाधार वाघेला दृपाटन के पूर्व कांग्रेस विधायक रामसिंह राठवा - छोटा उदेपुर पूर्व कांग्रेस विधायक प्रभु वसावा - बार डोली - पूर्व कांग्रेस विधायक डॉ किरीट सोलंकी - अहमदाबाद पश्चिम पूर्व कांग्रेस नेता डॉ. के सी पटेल - वलसाड - पूर्व कांग्रेस नेता जिनकी पत्नी कांग्रेस से जिला पंचायत में हैं देवसिंह चौहान - खेड़ा - पूर्व कांग्रेस संगठन मंत्री सम्मलित हैं। यही कारण है कि अडवाणी ने गाँधीनगर से अपना फार्म भरते हुए कहा कि मोदी एक अच्छे इवेंट मैनेजर हैं। /p p style= text-align: justify पिछले दिनों वे अपने दो महत्वपूर्ण पुराने सहयोगियों जनता दल ख्यू और बीजू जनतादल से दूर हो चुके हैं और ममता बनर्जी व मायावती दोनों ही खुल कर भाजपा की आलोचना कर रही हैं। यद्यपि आक्रामक चुनाव प्रचार और सुविधाओं के अतिरेक में उनके अपने समर्थक सक्रिय हुये हैं किंतु कुछ अवसरवादी चुके हुए नेताओं को छोड़ कर ऐसा कोई वर्ग नहीं दिख रहा है जो गैर भाजपा दलों से टूट कर भाजपा की ओर अग्रसर हुआ हो। जो नया युवा वर्ग पहली बार मतदान करने वाला है उसका भी यूपीए सरकार से निराश बड़ा हिस्सा नवोदित आम आदमी पार्टी को विकल्प के रूप में देख रहा है। /p p style= text-align: justify कुल मिला कर यह लगता है कि सारी लहर केवल प्रिंट और आडियो- वीडियो मीडिया होर्डिंग्स बैनर प्रायोजित रैलियों तथा बिके हुए बुध्दिजीवियों की बहसों तक सीमित है। /p