-आनंद पांडेय

भयानक समय में ही एक सच्चे नेता की पहचान होती है। यह बात हम सब जानते हैं। बल्कि, मुहावरे की तरह प्रयोग में लाते रहते हैं। लेकिन, एक देश की सामान्य दिनचर्या में संकटों की पहचान और उनसे मुकाबले की अलग-अलग दलों की अलग-अलग प्राथमिकताएँ, व्याख्याएँ और दृष्टिकोण होते हैं। ऐसे में सही नेतृत्व की पहचान की कसौटियाँ भी तरल और धुँधली होती हैं। परंतु, कोरोना ने देश और दुनिया के समक्ष जो संकट पैदा किया है उसमें ये कसौटियाँ निर्विवाद रूप से स्थापित हो गयी हैं। इसका एक उदाहरण हम यहाँ देख सकते हैं।

अब जबकि कोरोना ने सब कुछ ठप कर दिया है और व्यक्ति को आसन्न मृत्यु के भय से ग्रस्तकर अकेला छोड़ दिया है तब लोग तरह-तरह के विचारों और सवालों में उलझे दिख रहे हैं। पहला स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या हम इससे बच नहीं सकते थे? क्या हमने लॉक डाउन करने में देर नहीं कर दी? इत्यादि। सोशल मीडिया पर ऐसी ही एक बहस चल रही है कि यदि राहुल गाँधी प्रधानमंत्री होते तो क्या हम भारतीय बेहतर स्थिति में होते? और, पूरे देश को लॉक डाउन की स्थिति में डालने से बच सकते थे?

इस काल्पनिक सवाल उत्तर जितना मुश्किल है उतना इसका विश्लेषण नहीं। हम इस सवाल पर यों विचार कर सकते हैं—

ऐसी स्थिति में किसी नेता के लिए बेहतर होने के लिए मोटेतौर पर दो चीजें चाहिए थीं :

1. खतरे को पूरी गंभीरता में भाँप लेनेवाला दूरदृष्टि संपन्न और उसके अनुरूप कड़ा निर्णय लेने वाला नेतृत्व।

राहुल गांधी 31 जनवरी से ही लगातार सरकार को आगाह कर रहे थे। यह भी साबित हो गया है कि उन्हें स्थिति की पूरी भयावहता को सही-सही आकलन था। वे बार-बार कह रहे थे कि अर्थव्यवस्था और जनजीवन के लिए कोरोना सुनामी साबित होगा। प्रधानमंत्री को इस बात का अंदाजा नहीं है। उन्होंने अपना सिर जमीन में धँसा लिया है। उन्हें सिर बाहर निकालकर देखना चाहिए कि क्या होनेवाला है। सरकार जनजीवन को बचाने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं और राहत पैकेज के साथ-साथ इसके दुष्प्रभाव से अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए तत्काल कार्ययोजना तैयार कर उस पर काम करना चाहिए।

तथ्यों पर ध्यान दें तो राहुल गांधी की न केवल आशंका सही सिद्ध हुई बल्कि उन्हें खतरे का सही अंदाज़ा भी था। सरकार की आलोचना में भी वे सही सिद्ध होते हैं। देश में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को प्रकाश में आया। स्वास्थ्य मंत्री ने 2 फरवरी को सूचना दी कि प्रधानमंत्री स्वयं कोरोना संकट की निगरानी कर रहे हैं। लेकिन, इस दिशा में सरकार ने लंबे समय तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी के बाद भी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) और उनके उत्पादन में काम आनेवाले कच्चे माल का निर्यात 19 मार्च तक जारी रखा गया। जिससे आज डॉक्टर और दीगर स्वास्थ्यकर्मी मास्क, ग्लब्स और ऐसी अन्य मूलभूत सुविधाओं की कम आपूर्ति से परेशान हैं। सरकार किस तरह अचेत थी इसका एक उदाहरण स्वास्थ्य मंत्री का 5 मार्च का वह ट्वीट है जिसमें वे राहुल गांधी के कड़वी सचाई की तरफ इशारा करनेवाले ट्वीट को देश का मनोबल तोड़ने के गांधी परिवार के षड्यंत्र के रूप में देख रहे थे। वास्तविकता यह है कि केन्द्र सरकार से पहले राज्य सरकारों ने पहल करनी शुरू कर दी थीं और केन्द्र सरकार की पहली ठोस पहल रविवार को ‘जनता कर्फ्यू’ के रूप में सामने आयी। 20 मार्च को एक दिन का यह कर्फ्यू पर्याप्त कदम माना जा रहा था और दो दिन बाद 24 मार्च को 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा करनी पड़ी। निर्णयों में यह अस्पष्टता सरकार की तैयारियों की पूरी कहानी कहती है!


2.दूसरी चीज थी, किसी भी लॉक डाउन की स्थिति में निम्न आय वर्ग की न्यूनतम आय सुनिश्चित रखना।

कई देश लॉक डाउन की स्थिति में इस दिशा में कदम उठा रहे हैं। स्कॉटलैंड सार्वभौम न्यूनतम आय पर विचार कर रही है। भारत में भी इसी चीज की कमी महसूस हो रही है। संपूर्ण लॉक डाउन की स्थिति में सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और गरीब प्रभावित हो रहे हैं। लॉक डाउन के पहले दिन से ही करोड़ों लोगों के भोजन के संकट में पड़ जाने की खबरें आ रही हैं। किसी भी जानकार व्यक्ति के लिए इसका आकलन करना मुश्किल नहीं है।

राहुल गांधी ने 2019 के लोक सभा चुनावों के लिए अपने घोषणा-पत्र को न्याय योजना के रूप में प्रस्तुत किया था। इस घोषणा-पत्र की मीडिया ही नहीं बल्कि अकादमिक हलकों में भी चर्चा हुई थी। इस देश के लोकतंत्र में घोषणा-पत्र एक औपचारिकता बन गये हैं जिन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता। अपवाद स्वरूप यह बहुप्रशंसित घोषणा-पत्र रहा। कुछ उत्साही प्रशंसकों ने इसे समकालीन भारत की प्रत्येक समस्या को रेखांकित और पहचानने के लिए ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ कहा।

इस घोषणा-पत्र का जो सबसे अहम वायदा था वह यह कि यदि काँग्रेस की सरकार बनती है तो वह न्याय नाम से एक ऐसी योजना लाएगी जो देश की कुल आबादी के20 प्रतिशत आबादी को सालाना 72000 की आय सुनिश्चित करेगी। यानी कि किसी भी व्यक्ति की सालाना आय 72000 से कम नहीं होगी।

मई 2019 में यदि राहुल प्रधानमंत्री बन गये होते तो करीब 10 महीनों में यह योजना लागू हो चुकी होती। तो आज कोरोना से निबटने के लिए हमें लॉक डाउन के दौरान देश की एक बड़ी आबादी को खाते-पीते या अमीर लोगों के रहमोकरम पर छोड़ देने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। बल्कि, उन्हें इतनी आर्थिक सुरक्षा मिल चुकी होती कि वे भिखारी की स्थिति में नहीं पहुँचते।

अब तक हमने जो देखा उससे इस काल्पनिक प्रश्न का एक काल्पनिक उत्तर यह निकलता है कि यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री होते तो कोरोना से लड़ने में भारत न केवल अधिक सुरक्षित होता, बल्कि दुनिया की मदद भी करने की स्थिति में होता। सोशल मीडिया पर एक बड़ा वर्ग इस उत्तर को ध्वनित और प्रतिध्वनित करता हुआ दिखता है।