दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा, दानं दुर्गति नाशनम्

दान ही प्राणी की दुर्गति का नाश करता है। जो प्राणी दान नहीं करता उसको परलोक में यहां के धन से कोई सहायता नहीं मिलती। दान ही परलोक में हमारे साथ जाता है।

कहते हैं कोई कृपण था। वह कभी किसी को दान नहीं करता था। एक महात्मा उसके पास आए। वह देखकर पहले तो डर गया। कि यह महात्मा कुछ मांगेंगे। लेकिन महात्मा ने कहा डरिए मत मैं आपके यहां अमानत रखने आया हूं।तो  वह बड़ा खुश हुआ। महात्मा ने एक सोने की सुई अपनी झोली में से निकाल कर दी और बोले कि सेठ जी, इसको अपने पास रख लीजिए, परलोक में हमें दे दीजिएगा। सेठ ने बड़े प्रेम से ओ सुई रख ली। और अपनी स्त्री से बोला कि ये सुई संभाल कर रखना, महात्मा जी की अमानत है स्वर्ग में उन्हें देना है। पत्नी समझदार थी। उसने कहा कि पति देव, अमानत तो आपने रख ली किन्तु ले कैसे जायेंगे? तो सेठ बोला कि मेरे चश्मे के खोल में रख देना। तब वो बोली कि ये चश्मा का खोल तो यहीं रह जायेगा। तो वो बोला कि मेरे किसी कपड़े में लगा देना। पत्नी बोली कि कपड़े भी यहीं रह जायेंगे। पति ने कहा कि मेरे बाल में लगा देना, तो पत्नी ने कहा कि  बाल भी यहीं मुड़ जायेंगे।

 हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै जस घास।

कंचन काया जरि गई, तेरे कोई न आया पास।।

आप क्या सोच रहे हैं ये सुई आप परलोक में ले जा सकेंगे? तब उसके मन में विचार आया कि जब मैं सुई भी नहीं ले जा सकता तो इतनी बड़ी सम्पत्ति कैसे जायेगी। दौड़ कर महात्मा के चरण पकड़ लिया और बोला कि महाराज आपने तो हमारे नेत्र खोल दिए, अब ये उपाय बताइए कि ये सम्पत्ति मेरे साथ कैसे जायेगी? तो महात्मा जी ने कहा कि ये ऐसे नहीं जायेगी, जब किसी सत्पात्र को दान करोगे तो ये तुम्हारे साथ जायेगी। जो तुम घर में जोड़ कर रखे हो, बैंक में रखे हो वो तुम्हारे साथ जाने वाली नहीं है।

जब मनुष्य दान करता है तो परलोक में जो उसकी दुर्गति होने वाली है, उसका नाश हो जाता है। यहां के लिए तो हमने सारे इंतजाम कर लिए हैं। विचार की बात है कि मनुष्य जब अपने घर से तीर्थ यात्रा के लिए निकलता है तो कुछ पैसे रख लेता है और घर के लोग बड़े प्यार से खाने पीने का सामान रख देते हैं। तो जहां से हम लौट कर आ सकते हैं, चिट्ठी और फोन कर सकते हैं, वहां के लिए तो हम प्रबंध करते हैं लेकिन जहां से न चिट्ठी आ सकती है और न कोई फोन आ सकता है वहां के लिए कोई प्रबंध ही नहीं। जबकि इस लोक को छोड़कर परलोक जाना तो सुनिश्चित ही है।

जो व्यक्ति परलोक की बात सोचता है वह अवश्य ही दान करता है। तो दान दुर्गति का नाश करता है। भगवान श्रीराम तो दान के लिए परम वीर हैं। उनके जीवन के संबंध में आता है कि कोई याचक उनके पास आता था धन मांगने के लिए तो श्री राम जी कहते थे कि -

 आपदामेक मागारं, किं नु वांछति रे धनम्।

 इत्युक्त्वा निज सर्वस्वं, अर्थिने सम्प्रयच्छति।।

जब कोई भगवान श्रीराम से धन मांगता था तो वे कहते थे कि अरे! आपत्ति का एकमात्र घर धन क्यूं मांगता है? धन में तो आपत्ति ही आपत्ति है।

 अर्थानामर्जने क्लेश:, तथैव परिपालने।

 नाशे दुःखं व्यये दुःखं,धिक्तात क्लेश कारिण:।।

धन के अर्जन में दुःख,उसकी रक्षा में दुःख,नाश होने पर दुःख,खर्च होने पर दुःख। दुःख ही दुःख तो है। राजा से डर,चोर से डर,स्वजनों से डर-

राजत: चोरत सर्प:, स्वजनात् पशु पक्षिण:

इसलिए- दान परशु।