दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा, वर विज्ञान कठिन कोदंडा

धर्म रथ पर आरूढ़ होकर हमें संसार शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए परशु (फरसा) की आवश्यकता पड़ेगी।  भगवान श्रीराम श्री विभीषण को उपदेश करते हुए कहते हैं कि दान ही परशु है और बुद्धि ही प्रचंड शक्ति है। वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ा की आवश्यकता पड़ती है। यहां संसार वृक्ष को काटने के लिए दान ही कुल्हाड़ा है। शास्त्रों में अनेक स्थान पर संसार को वृक्ष से उपमित किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में- ऊर्ध्वमूलमध:शाखम् इस रूप में कहा गया। और श्रीमद्भागवत में में भी इसे वृक्ष कहा गया है- एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलः

यह संसार एक अनादि वृक्ष है जिसका अयन उत्पत्ति स्थान एक है, दो फल हैं सुख और दुःख। तीन जड़े हैं सत्व, रज और तम। चार रस हैं अर्थ धर्म काम और मोक्ष। पांच प्रकार हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध। षडात्मा छः इसके स्कंध हैं अर्थात् जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते और नश्यति। जायते=जन्म लेना।अस्ति=अस्तित्व में आना। वर्धते=बढ़ना।विपरिणमते= विपरिणाम को प्राप्त होना।अपक्षीयते= अपक्षय होना।विनश्यति=अन्त में विनष्ट हो जाना। ये षडात्मा है यही इस शरीर के सात धातु इसकी छाल है। 

भूम रापोSनलो वायु, र्खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे, भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

भूमि, आप, अनल, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार ये आठ प्रकार की प्रकृति ही आठ शाखाएं हैं।

नवाक्ष : शरीर के नौ दरवाजे ही इस वृक्ष के नौ कोटर हैं। और दशच्छदी: दस प्राण ही इसके दस पत्र हैं। प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान ये पांच प्राण और पांच उपप्राण नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय ये दस पत्ते हैं। और द्वि खगः इस पर दो पक्षी हैं एक जीव और एक ईश्वर।

ऐसा ये अनादि वृक्ष है। इस प्रकार संसार की वृक्ष के रूप में जगह-जगह उपमा दी गई है। लेकिन इस वृक्ष को फलने-फूलने दिया जाए इसलिए इसलिए इसका वर्णन नहीं किया गया है। गीता में भगवान ने बड़े विस्तार से इसका वर्णन किया है। और कहा है कि इस संसार वृक्ष को काटना है।

ऊर्ध्वमूलमध:शाखं, अश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

 छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं वेद स वेदवित्।

इसकी शाखाएं नीचे भी हैं और ऊपर की ओर भी गई हैं। गुण: प्रवृद्धाः सत्व रज तम तीनों गुणों से बढ़ी हुई हैं। विषयप्रवाला: शब्द स्पर्श रूप रस गंध इसकी कोपलें हैं। अधश्च मूलान्यनु संततानि, कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके इसकी कुछ जड़ें नीचे भी गई हैं जो मनुष्य लोक में प्राणी को बांधती हैं। तो ऐसे संसार वृक्ष को असंगशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा दृढ़ असंग शस्त्र से इसे काटो। और इसको काटकर तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं, यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः इस संसार वृक्ष को असंग शस्त्र से काटकर उस परम पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसे प्राप्त कर लेने के पश्चात प्राणी संसार में लौट कर नहीं आता।

दान मनुष्य तभी कर सकता है जब संसार में उसका प्रेम न हो। अनासक्त हो। दान मनुष्य के मन में अनासक्ति उत्पन्न करता है। यहां पर सात्त्विक दान की बात है। रजोगुणी तमोगुणी दान की बात नहीं है। सात्त्विक दान उसी को कहते हैं दातव्यमिति इतना तो मुझे देना ही है। ये भाव हो।

मनुष्य को अपनी आय के पांच भाग करना चाहिए।

धर्माय यशसेSर्थाय, कामाय स्वजनाय च।

पंचधा विभजन्वित्तं, इहामुत्र च मोदते।।

अपनी आय का एक भाग धर्म में लगाए, दूसरा भाग यश में लगाएं, तीसरा भाग अपने काम में, चौथा भाग मूल धन की रक्षा के लिए, और पांचवां भाग अपने स्वजन बंधु बांधव नौकर चाकर इनके लिए रखें। इस प्रकार जो अपने आय का पांच भाग करता है वह इस लोक और परलोक में आनंद करता है। जो धर्म के लिए पहले ही निकालता है दातव्यं ये तो हमें देना ही है। और उसको दान देना जिससे हमें प्रत्युपकार की अपेक्षा न हो। दीयतेऽनुपकारिणे, देशे काले च पात्रे च देश,काल और पात्र का विचार करके दान दिया जाए। किस देश में, किस काल में, किस पात्र को क्या दिया जाए। वो दान सात्त्विक है तो ऐसे दान से संसार रूपी वृक्ष कटता है।

दान परशु बुधि शक्ति प्रचंडा