यत्रास्ति भोगो नहिं तत्र मोक्ष:

यत्रास्ति मोक्षो नहिं तत्र भोग:

श्री सुन्दरी सेवन तत्पराणां,

भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।

यह सिद्धांत है कि जहां भोग होता है वहां मोक्ष नहीं और जहां मोक्ष होता है भोग नहीं। किन्तु भगवती पराम्बा राजराजेश्वरी के जो उपासक हैं। उसके एक हाथ में भोग और दूसरे हाथ में मोक्ष रहता है। भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एवं यहां लोकोत्तर भोग की चर्चा है। श्री मद् देवीदेवी भागवत और श्री दुर्गा सप्तशती में दो लोगों की कथा आती है एक राजा सुरथ और दूसरे समाधि वैश्य।

एकबार कोला विध्वंसी म्लेच्छों से राजा सुरथ का संग्राम हो गया। संयोग की बात कि म्लेच्छ जीत गए और राजा हार गए। किसी प्रकार उन्हें कर देकर राजा ने अपना राज्य बचाया। लेकिन राजा को निर्बल जानकर मंत्री उनकी उपेक्षा करने लग गए। वे ये समझ गए थे कि राजा में कोई शक्ति तो है नहीं, इसलिए वे उनकी अवज्ञा करने लगे। और षड़यंत्र करके राजा को सिंहासन से उतार कर स्वयं राजा बनना चाहते थे।

एक दिन तो ऐसी संभावना बन गई कि मंत्रीगण राजा का वध कर देंगे। अब किसी प्रकार राजा सुरथ को इस षड़यंत्र की जानकारी हो गई तो वे अपने राज्य का परित्याग करके जंगल में आ गए। और दूसरी ओर समाधि नाम का एक वैश्य था जो बहुत धनाढ्य था। लेकिन उसके पुत्र और पौत्र के मन में धन के प्रति लोभ हो गया और वे सोचने लगे कि हमारे पिता जी कब मरें और हम धन के अधिकारी बन जाएं।

दुर्भाग्यवश समाधि की पत्नी भी बच्चों की पक्षधर हो गईं। जब उसने देखा कि परिवार में हमारा कोई नहीं है, तो वह घर का परित्याग करके जंगल में आ गया। वहीं समाधि और सुरथ की भेंट होती है। दोनों सुमेधा ऋषि के आश्रम में गए और दोनों ने अपना-अपना दुःख निवेदन किया। सुरथ ने कहा कि महाराज! मैं राज्य से च्युत हो गया हूं फिर भी मुझे राज्य की याद आती है। हमने जो कोष एकत्रित किया है वो सब नष्ट हो जायेगा।

अनेक प्रकार की चिंता हो रही है। इसी प्रकार समाधि ने भी कहा कि महाराज! हमें घर वालों ने निकाल दिया है फिर मुझे घर की याद आती है। कहीं ऐसा न हो कि हमारे पुत्र पौत्र आदि हमारा धन खर्च कर दें। ये सब सोचकर हमें चिंता हो रही है। कारण क्या है? तो सुमेधा ऋृषि ने समझाया कि देखो! तुम्हारे मन में जो ये भावना आ रही है, तुम्हें मोह हो रहा है, ये भगवान की माया है।

ज्ञानिनामपि चेतांसि,

देवी भगवती हि सा।

बलादाकृष्य मोहाय,

महामाया प्रयच्छति।

बड़े-बड़े ज्ञानियों के चित्त को भी आकर्षित करके वह महामाया जबरदस्ती मोह में डाल देती है। माया ऐसी प्रबल होती है कि अच्छे अच्छे समझदार लोगों को भी मोह में डाल देती है।

जो ज्ञानिन्ह कर चित अपहरई

बरिआई विमोह बस करई।।

उसी माया के द्वारा यह सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है। यही पालनी शक्ति है। उसकी तुम आराधना करो।। तो राजा सुरथ और समाधि ने तपस्या किया। भगवती के परम पावन चरित्र का श्रवण किया। उन प्रसंगों को भी सुना जिसमें मां ने अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए महिषासुर आदिकों का उद्धार किया है। जब देवताओं ने भगवती की स्तुति की तो कहा कि मां! इन असुरों को तो आप अपनी दृष्टि मात्र से ही भस्म कर सकती हैं। किन्तु रणक्षेत्र में इसलिए युद्ध करती हैं कि आपका दर्शन करते हुए जब इनके प्राण जायेंगे तो इनकी सद्गति हो जायेगी।

दृष्ट्वैव किं न भवति प्रकरोति भस्म,

सर्वासुनरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।।

आप केवल उन असुरों पर कृपा करने के लिए ही रणांगण में आती हैं। आप जानती हैं कि क्षत्रिय रणभूमि में मरेगा तो उसको वीरगति प्राप्त होगी। इस प्रकार सुरथ और समाधि देवी परम सूक्त का पाठ करते हुए पराम्बा के मंगलमय चरित्रों का श्रवण करते रहे।  तो सुरथ को राज्य और समाधि को मोक्ष की प्राप्ति हुई। अर्थात् भगवती मोक्ष की इच्छा रखने वाले को मोक्ष, और भोग की इच्छा रखने वाले को भोग प्रदान करती हैं।

भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव