झाबुआ। आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के धूमड़िया गांव में एक आदिवासी परिवार की 5 बेटियां स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं। उन्हें अपना घर चलाने के लिए स्कूल की जगह मजदूरी करने जाना पड़ रहा है। पहले से आर्थित तंगी झेल रहे परिवार की कमर कोरोना महामारी ने तोड़ दी। पिता का काम काज पहले ही ठीक नहीं चल रहा था। ऊपर से कोरोना की वजह से काम मिलना कम हो गया। परिवार का पेट पालने के लिए पिता को साहूकार से कर्जा लेना पड़ा। इन बच्चियों के पिता नानसिंह डामोर हैं, 6 बेटियों के पिता ने एक बेटी किसी को गोद दे दी है। फिलहाल 7 लोगों के पालन पोषण का जिम्मा उनके ऊपर है। वह खेतों में मजदूरी कर परिवार चलाते हैं। घर चलाने के लिए कर्ज का सहारा लेना पड़ता है। कर्ज उतारने के लिए ज्यादा कमाई की आस में बेटियों को मजदूरी के लिए लेकर साथ लेकर जाते हैं, ताकि दो पैसे ज्यादा कमा सकें। वे बेटियों को लेकर गांव से करीब 60 किलोमीटर दूर खेत में काम करने जाते हैं।

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बीते 2 साल से ये लड़कियां स्कूल नहीं गई हैं, वहीं गरीब पिता के पास स्मार्ट नहीं होने की वजह से उन्होंने ऑनलाइन पढ़ाई नहीं की। दो साल में वे बिना पढ़े 7 वीं से 8वीं में प्रमोट तो हो गई हैं। लेकिन शिक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं है। हैरत की बात तो ये है कि इन इलाकों के बच्चों को एक भी क्लास अटेंड किए बिना 8वीं में प्रमोट कर दिया गया। गांव में गरीब आदिवासी के पास एक छोटा सा खेत है जिसकी फसल कटाई के बाद वे दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं। परिवार का खर्चा उठाने के लिए लड़कियों की मां भी कई बार मजदूरी करने जाती है। वहीं स्कूल जाने के बारे में छात्राओं का कहना है कि अगर स्कूल खुले होते तो वे काम पर नहीं जातीं।

मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग (MPCPCR) की एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बाद मध्यप्रदेश के 4 आदिवासी जिलों में कक्षा 1 और 12 के करीब 40,000 बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया है। कोरोना महामारी की वजह से देश-प्रदेश में निम्न-मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग का रोजगार छिनने की वजह से आर्थिक संकट आ गया है। माता-पिता स्कूलों की फीस भरने और किताबें खरीदने में समर्थ नहीं हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार झाबुआ में अनुसूचित जनजातियां कुल जनसंख्या का लगभग 86% हैं। प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर 35%  है।