भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी। एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा, जो अपने आस-पास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सँजो लेता है।" अनुपम मिश्र (भाषा और पर्यावरण)

इस आलेख का शीर्षक अनुपम मिश्र के व्याख्यानों का संकलन "अच्छे विचारों का अकाल" से बिना किसी परिवर्तन के ले लिया है। पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव की प्रचार सभा में जिस प्रकार के विचार प्रकट किए और जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया, वह वास्तव में बेहद डरावनी है! जाहिर है इस तरह के विचार और शब्दावली मन में गुस्सा लाते हैं और हमारी भाषा और विचार दोनों पर विपरीत प्रभाव भी डालते हैं। 

यह सहज ही है, कि लगने लगता है कि इस तरह के विचारों और भाषा का जवाब भी कठोरता से दिया जाए। परन्तु पीएम मोदी के भाषण को सुनकर लगा कि, यदि किसी प्रधानमंत्री के पास जब कुछ सकारात्मक गिनाने को ही नहीं होगा, तो उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है। यह समझना भी स्वयं की मूर्खता होगी कि उन्होंने जो कुछ कहा वह बिना सोचे-समझे या अनायास ही कह दिया है। जब हम वैचारिक तौर पर विपन्न हो जाते हैं तभी हम भाषा और विचार के स्तर पर अतिरिक्त आक्रामक होते हैं। ऐसे में अनुपम मिश्र और उनका भाषायी सरकार लगातार याद आता है। वे कठोर से कठोर बात को जिस माधुर्य से, सहजता से और बिना आक्रामक हुए समझा देते हैं, उससे हमें भाषा की ताकत और समृद्धि का एहसास होता है।

प्रधानमंत्री का बेहद तंज होकर "मुसलमान", "मंगलसूत्र  "घुसपैठियों  "ज्यादा बच्चे वाले परिवार" जैसे शब्दों का प्रयोग करना समझा रहा है कि वे प्रधानमंत्री के पद पर दस बरस रह लेने के बावजूद स्वयं को भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन पाए हैं। हाँ वे भारत भी पूरी भौगोलिक सीमा के प्रधानमंत्री हैं। और ऐसा इसलिये भी है, क्योंकि इसके लिए उनको स्वयं कोई प्रयास नहीं करना पड़ा है। चूंकि यह सब तो भारत की आजादी यानी 15 अगस्त 1947, को देश को हस्तांतरित हो चुका था वहीं भारत की आजादी के बाद पुडुचेरी (पूर्व में पांडिचेरी) 1 नवंबर 1954 को फ्रांस के साथ एक संधि के बाद भारत का हिस्सा हो गया। 

दादरा नगर हवेली पर भी पुर्तगालियों का सन 1783 से कब्ज़ा था और इसका 11 अगस्त 1961 को भारत में विलय हुआ। गोवा करीब 450 वर्षों तक पुर्तगाल के अधीन रहने के बाद 19 दिसम्बर 1961 को भारत का हिस्सा बन गया। वहीं सिक्किम 16 मई 1975 को भारत का हिस्सा बना। तो आजादी के भारत में मिले इन राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों के नागरिक भी "भारतीय नागरिक" ही हैं। ऐसे में भारत में  "घुसपैठिया" वे किसे कह रहे हैं। 

हमें यह भी समझना होगा कि उपरोक्त प्रदेश के नागरिकों का भारतीय संविधान में विश्वास नहीं होता तो क्या के भारत के साथ विलय के लिए भारत की आजादी के 28 बरस बाद (सिक्किम) भी राजी होते? वे भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाना चाहते थे। गौरतलब है भारत में विलय को लेकर सिक्किम में जनमत संग्रह हुआ था, जिसमें 97.5 प्रतिशत ने भारत में विलय के पक्ष में मत दिया था। गौरतलब आजादी के बाद भी समाहित इन प्रदेशों में बड़ी आजादी अल्पसंख्यकों की है।

हमें याद रखना होगा कि भारत में संविधान लागू होने के पश्चात् उपरोक्त राज्यों का भारत में विलय हुआ है। सिक्किम को संविधान के छत्तीसवें संशोधन के बाद शामिल किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1(3) के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में
(क) राज्यों के कार्यक्षेत्र 
(ख) पहली अनुमुची में विनर्दिष्ट संघ राज्यक्षेत्र और 
(ग) ऐसे राज्यक्षेत्र जो अर्जित (acquired) किए जाएं, समाविष्ट होंगे। 
अगले ही भाग, भाग -2 में भारत की नागरिकता को विस्तार से परिभाषित किया गया है। तो फिर प्रधानमंत्री अपने भाषण में "घुसपैठिया" जैसा शब्द का प्रयोग कैसे कर सकते हैं? वे तो अभी कई पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों (मुसलमानों को छोड़कर) को उदारता से नागरिकता देने के पक्षधर हैं। इसके लिए कानून भी लागू कर चुके हैं। जिम्मेदार राजनीतिक पदों पर बैठै व्यक्तियों को बेहद जिम्मेदारी से अपनी बात रखनी चाहिए। 

सोवियत रूस, पाकिस्तान, युगोस्लाविया जैसे राष्ट्रों का विघटन हम देख चुके हैं और दूसरी ओर जर्मनी और वियतनाम का एकीकरण भी हमने देखा है। वैसे भी किसी राष्ट्र-प्रमुख की वाचालता शोभनीय नहीं है होती। प्रधानमंत्री लगातार कांग्रेस मेनिफेस्टों के संदर्भ में कुछ ऐसा उद्धत कर रहे है, जो उसमें लिखा/कहा ही नहीं गया है। चुनाव प्रचार किसी तरह की गलतबयानी की खुली छूट तो नहीं देता? 

मीडिया को साध लेने के बाद यह स्थापित किया जा रहा है कि विपक्षी दल काँगेस पूरी तरह से जनविरोधी है। यह पूरी प्रक्रिया लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के खिलाफ है। यह भी बेहद आश्चर्यजनक है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के, प्रधानमंत्री के भाषणों में उनके अपने दल के मेनिफेस्टों का जिक्र तक नहीं होता। वे "मंगलसूत्र" की बात में देश को उलझा रहे हैं, जबकि देश तो बेरोजगारी, भूख, अशिक्षा, बीमारी, सांप्रदायिकता, धन के असमान वितरण, कानून की बिगड़ती स्थिति, कृषि में घटती उत्पादकता, बढ़ती महंगाई, जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव, जातिवाद, महिलाओं और बच्चों पर बढ़ते अत्याचार, कुपोषण, जैसे विकराल संकटों में उलझा पड़ा है। 

वैश्विक आर्थिक रिपोर्ट बता रहीं हैं कि भारत में आज जितनी व्यापक आर्थिक असमानता है, उतनी तो तब भी नहीं थी जब भारत इंग्लैंड का गुलाम था। वे तो सबका साथ सबका विकास का नारा दे चुके हैं। परंतु उनके भाषणों से साफ नजर आता है कि वे सबका साथ चाहते ही नहीं हैं। भारत में अब समुदायों/धर्मों के बीच खाई नहीं खोदी जा रही है बल्कि ऊंची दीवार खड़ी की जा रही है। खाई के तो पार देखा जा सकता है। सामने खड़े अक्ति के चेहरू की करुणा और मैत्री को उसकी आँखों में, उनके चेहरे पर आ रहे भावों से समझा जा सकता है। परंतु दीवार ऐसी सभी संभावनाओं को ध्वस्त कर देती है।

प्रधानमंत्री अपनी सुविधानुसार विश्लेषण करते रहते हैं। जो उनके अनुकूल नहीं बैठता वह उसे पूरी तरह से नजरअंदाज करते हैं। भले ही फिर वे न्यायालयीन निर्णय ही क्यों न हो। इसका नवीनतम उदाहरण है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ईवीएम – वीवीपीएटी पर दिया फैसला। इसे लेकर वे अतिउत्साह या अतिरिक्त उत्साह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उन्होने कहा कि यह फैसला जो लोग मतपेटी लूटना चाहते थे उन पर बड़ी चोट है। गौरतलब है यह फैसला न्यायाधीशों की खंडपीठ ने दिया है।

वहीं चुनावी बाँड पर सर्वोच्च न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की संविधानपीठ ने जो निर्णय दिया, उसका उन्होंने स्वागत नहीं किया और उसे लेकर असाधारण चुप्पी साध ली। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनकर उसे केन्द्रशासित प्रदेश बना दिया। लद्दाख से तो विद्यानसभा ही छीन ली गई। कश्मीर घाटी से धारा 370 को हटाये जाने को वे एक महान उपलबिध बता रहे हैं और वहां की प्रगति/विकास में आ रहे रोड़े हट जाने की बात करने लगे हैं। यदि यह इतना ही क्रांतिकारी कदम है और स्थानीय समुदाय के हित में है तो भाजपा वहां से लोकसभा के लिए चुनाव क्यों नहीं लड़ रही? 

मणिपुर में यदि सबकुछ शांत है तो भाजपा वहाँ से चुनाव क्यों नहीं लड़ रही, जबकि वहां तो भाजपा की ही सरकार है। नागालैंड में भाजपा सरकार है पर वहां से भी लोकसभा नहीं लड़ रहे। आखिर ऐसा क्यों?
अनुपम जी के एक व्याख्यान का शीर्षक है "रावण सुनाए रामायण"। इस व्याख्यान की शुरुआत में वह कहते हैं,  
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है।
वह है नदी का धर्म
गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को।
 पहले इस धर्म को मानना पड़ेगा।
दस वर्षों से वे वाणारसी/बनारस/काशी आप जो भी कहना चाहें वहां के सांसद हैं साथ ही साथ प्रधानमंत्री भी हैं। उन्होंने इस शहर को "क्योटो" बनाने का वायदा किया था लेकिन गंगा जी की गंद‌गी तक इन दस वर्षों में खत्म नहीं हो पाई। थोड़ा और विस्तार में जाते हैं। वे कहते हैं कांग्रेस के शासन में जनहित के कामकाज ही नहीं हुए। गरीबों, वंचितों, शोषितों के हित में कुछ हुआ ही नहीं। इस विषय पर वे यह भी बताएं कि पिछले दस वर्षों में उक्त वर्गों के लिए क्या किया गया? 

हमें याद रखना होगा कि पिछले एक दशक में एक भी कानून ऐसा नहीं बना है जो वास्तव में जनहितकारी हो। यूपीए के शासन में शिक्षा का अधिकार कानून, (नया) वन अधिकार कानून, (नया) भूमि अधिग्रहण कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, सूचना का अधिकार कानून, महात्मा गांधी नरेगा जैसे तमाम जनहितकारी कानून बने थे। वर्तमान में इनमें से अधिकांश पर ग्रहण लग चुका है। 

महात्मा गांधी ने 10 सितंबर 1931 को कहा था, "मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूँगा जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त कर दे। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग यह महसूस करेंगे की यह उनका देश है - जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमे ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विभिन्न सम्प्रदायों में पूरा मेल-जोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं होगा। उसमें स्त्रियों के वही अधिकार होंगे जो पुरुष के होंगे। (संपादित) 

यह बात उन्होंने आजादी के 16 वर्ष पूर्व और संविधान लागू होने के करीब दो दशक पहले कही थी। भारत के लोगो ने इसे आत्मसात किया और इसी भावना से संविधान का निर्माण भी हुआ। प्रधानमंत्री जिस तरह की मनस्थिति में है वह लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। कोरोना और उसके बाद की आसमान छूती महंगाई अनगिनत महिलाओं के "मंगलसूत्र" या तो गिरवी रखवा चुकी है या बिकवा चुकी है। 

रिजर्व बैंक के स्वयं ही स्वीकारा है कि पिछले वर्षों के सोना गिरवी रखकर ऋण लेने में असाधारण वृद्धि हुई है। नोटबंदी ने भारतीय सभ्यता के इतिहास में पहली बार महिलाओं की निजी पूंजी यानी साधन को नष्ट कर दिया। भाजपा आज कांग्रेस और अन्य दलों से आ रही भीड़ से सुशोभित हो गई है। हजारों करोड़ के घपलों को लेकर जिनकी जाँच चल रही थी उन्हे भाजपा में आते ही "क्लीन चिट" मिल गई है। 

पूर्व उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने इस पर तीखी टिप्पणी भी की है। वहीं, कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने भाजपा में आने के बाद पहला लेख "पिंजड़े में बंद तोते की कल्पित कथा" लिखा। जिसमें वे सीबीआई, ईडी आदि का गुणगान करते नजर आ रहे हैं। पिछले एक महीने में उनके मयखाने-इबादतगाह में बदल गए हैं? यही अनैतिकता आज भी राजनीति की कटु सच्चाई है। लिखना तो बहुत कुछ है। पर कम लिखे को ज्यादा समझिये। सोचिए भारत के लोकतंत्र में क्या घट रहा है और भविष्य में इसके परिणाम क्या निकलेंगे! अनुपम जी अपने व्याख्यान "रावण सुनाये रामायण" के अंत में कहते है, "मराठी में एक सुंदर कहावत है’ रावण तोंडी रामायण। रावण खुद बखान कर रहा है रामायण की कथा। हम ऐसे रावण न बने।" आगे आप स्वयं समझदार हैं।