भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने कहा है कि - क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका

क्षणमात्र की सत्संगति संसार समुद्र से पार करने वाली नौका बन जाती है। यह बात सहसा समझ में नहीं आती।एक क्षण के सत्संग से कैसे लाभ हो सकता है? जब कुछ काल तक सत्संग किया जाए और उससे लाभ हो, ये बात तो समझ में आती है। लेकिन क्षण भर वाली बात तो समझ में आती ही नहीं है।

इसे एक दृष्टांत से समझना होगा। आप अपने घर में आनंद से सो रहे हैं। स्वप्न देखते हैं कि गांव के पास वाली नदी में बाढ़ आ गई है। इतनी बाढ़ आ गई कि गांव डूब गया, घर डूब गया, पशु बहने लगे। सारा संसार जल मग्न हो गया। हम भी डूबते जा रहे हैं। स्वप्न में चिल्ला रहे हैं कि नाव लाओ, नाव लाओ। कई किलोमीटर दूर दृष्टि डालने पर भी नाव नहीं दिखाई दे रही है। आपके मन में भय उत्पन्न हो जाता है कि हम जल में डूबकर मरने जा रहे हैं। सहसा कोई आकर कहता है कि उठो, बहुत देर से सो रहे हो। एक क्षण में ही आपकी नींद खुली, उठकर आप देखते हैं कि हम तो आनंद से बिस्तर पर सोये हैं। दूर-दूर तक बाढ़ का पता ही नहीं है। तो वह जो बाढ़ का दुःख है वह क्षण भर में दूर हुआ कि नहीं?

इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने एक उदाहरण दिया है कि-

जौ सपने सिर काटइ कोई। बिनु जागे न दूर दुःख होई।।

जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।

जैसे स्वप्न में कोई हमारा सिर काट ले, हम समझ रहे हैं कि हम मर गए। हमारे परिवार के लोग हमारे वियोग में विलाप कर रहे हैं, शरीर को अर्थी पर रखकर श्मशान ले जाया गया। चिता में रखकर जला दिया गया। अब ऐसा लगता है कि हाय! हम तो संसार से निकल गए, मर गए।मन में ऐसा सोच ही रहे थे कि पास में सोया हुआ दूसरा व्यक्ति धक्का देकर जगा दिया, आंखें खुल जाती हैं तो देखते हैं कि हमारा शरीर तो सही सलामत है। जिसने हमें धक्का देकर जगाया वही तो भगवान हैं जो गुरु के रूप में हमें उपदेश करते हैं। और उन्हीं के लिए गोस्वामी जी कहते हैं कि-

जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।

जिसकी कृपा से यह भ्रम मिट जाता है वही कृपाल रघुराई हैं। हमारे शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि गुरु में और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। गुरु में मनुष्य बुद्धि करनी ही नहीं चाहिए। जो गुरु में मनुष्य बुद्धि करता है, उसका सब साधन निष्फल हो जाता है। हाथी स्नान जैसा हो जाता है।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

सखा धरम मय अस रथ जाके। जीतन कंह न कतहुं रिपु ताके।।

यह ऐसा रथ है, जिसमें बैठने पर शत्रु रहता ही नहीं है। शत्रु रहेगा तब न मारा जायेगा। कितनी बड़ी बात है कि और रथों में तो बैठकर शत्रु पर प्रहार करना पड़ता है लेकिन यह ऐसा रथ है, जिसपर बैठने से जीतन कंह न कतहुं रिपु ताके कोई शत्रु रह ही नहीं जाता। अपने से भिन्न रावण कहां है। सिवा एक आत्मा के कुछ शेष रह ही नहीं जाता। 

ऐसे धर्म रथ पर आरूढ़ होकर किसको मारें? ऐसे धर्म रथ का वर्णन भगवान श्रीराम ने विभीषण जी के सामने किया। विभीषण जी भगवान के साधक भक्त माने जाते हैं। तीन प्रकार के भक्त होते हैं। विषयी,साधक और सिद्ध। सुग्रीव जी विषयी हैं, विभीषण जी साधक और निषाद राज सिद्ध भक्त हैं। यहां युद्ध के अवसर पर साधक भक्त को भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया।

श्री विभीषण जी भगवान के चरण कमलों में गिर पड़ते हैं और बोले कि महाराज! इस रथ के द्वारा आपने मुझे आत्म ज्ञान से धन्य कर दिया। मैं कृतार्थ हो गया।

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्ध्वा, त्वत्प्रसादान्मयाSच्युत।

स्थितोSस्मि गत संदेह: करिष्ये वचनं तव।।

जैसे अर्जुन ने कहा था।इसी प्रकार कहकर विभीषण जी ने भगवान श्रीराम को प्रणाम किया।