“धर्मविहीन जिन्ना एक धार्मिक राज्य बनाना चाहते थे। पूर्णतया धार्मिक गांधी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य चाहते थे।” -लुई फिशर
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम की “बैसरन घाटी” में बाईस अप्रैल को हुआ कत्लेआम मनुष्य के हैवान में बदल जाने की गाथा है। इस घटना के बाद पाकिस्तान को लेकर भारत सरकार और भारतीय मीडिया ने जैसा वातावरण तैयार किया है, वह भारत जैसे गरिमामय राष्ट्र की छवि से मेल नहीं खाता। लुई फिशर ने जिस पैनेपन के साथ द्विराष्ट्र के सिद्धांत को उधेड़ दिया है, वह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि यदि भारत, सावरकर और संघ के हिन्दू राष्ट्र की दिशा पकड़ लेता तो आज हम कहाँ होते।
वास्तविकता यही है कि धर्म को जानने समझने वाला समझता है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के आधार पर लंबे समय तक सुशासित नहीं रह सकता। भारत अपने अतीत में बहुत थोड़े समय के लिए एक धर्म आधारित राष्ट्र-रह पाया और पहली चोट पड़ते ही राज्य का धार्मिक आवरण छिन्न-भिन्न हो गया। परंतु अब शायद हम इतिहास से सबक नहीं लेना चाहते बल्कि इस दंभ से भर गए हैं कि इतिहास को ही बदल डालेंगे। क्या यह संभव है? नहीं! हुजूर अगर, आपका गुस्सा शांत हो गया हो तो पाकिस्तान को लेकर कुछ बात करें?
पाकिस्तान के कश्मीर रवैये को समझने के लिये कुछ दस्तावेजों का अध्ययन बेहद जरुरी है। इसमें पहला है कश्मीर के प्रधानमंत्री द्वारा 12 अगस्त 1947 को भारत शासन और पाकिस्तान शासन को भेजे गए एक जैसे टेलीग्राम। इसका मसौदा है, “जम्मू एवं कश्मीर सरकार भारत (पाकिस्तान) के साथ सभी मुद्दे जो वर्तमान समय में ब्रिटिश इंडिया सरकार के साथ चल रहे हैं पर यथास्थिति समझौता करने का स्वागत करती है। यह सुझाव दिया जाता है कि लंबित मसलों का निपटारा हो जाने तक वर्तमान व्यवस्था रहे।“
इसके जवाब में पाकिस्तान सरकार ने 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर सरकार के प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दी। वहीं, भारत सरकार ने अपने जवाब में लिखा था, “भारत सरकार को प्रसन्नता होगी यदि आप अपने किसी मंत्री को अधिकृत कर विमान से दिल्ली भेज दें जो कि कश्मीर सरकार और भारत शासन के मध्य यथास्थिति समझौते पर निर्णय ले सके। वर्तमान समझौतों और प्रशासनिक इंतजाम बनाये रखने के लिए त्वरित कार्यवाही करना वांछित है।”
परंतु बात आगे नहीं बढ़ी और पाकिस्तान ने अक्टूबर में जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन परिस्थितियों को समझने के लिए जम्मू कश्मीर के शासक महाराज हरिसिंह द्वारा 26 अक्टूबर 1947 को लार्ड माउंटबेटन, गवर्नर जनरल भारत को लिखे पत्र और उसी दिन उनके द्वारा भारत में कश्मीर के विलय के दस्तावेज का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए। अगले ही दिन गवर्नर जनरल ने विलय के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी। परंतु पाकिस्तान की अवैध सैन्य गतिविधियां जारी रहीं।
इसके बाद भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ में की गई शिकायत और 13 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्र आयोग द्वारा भारत एवं पाकिस्तान को लेकर किये गए समझौते को भी ध्यान से पढ़ना चाहिए। इसमें युद्धविराम का आदेश, युद्धविराम संधि और इसी दिन भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग द्वारा जो प्रस्ताव (Resolution of Assurances) अपनाया गया उसकी विवेचना भी करना चाहिए।
उपरोक्त प्रस्ताव की कंडिका 8 में साफ़ लिखा है कि “भारत पर जनमत संग्रह बंधनकारी नहीं रहेगा यदि पाकिस्तान 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव के भाग-1 और भाग-2 को क्रियान्वित नहीं करता।” पाकिस्तान ने उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। फलस्वरूप अगस्त 1948 का उपरोक्त प्रस्ताव धराशायी हो गया। वे सारे लोग जो भारत के संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने का विरोध करते हैं, उन्हें उपरोक्त दस्तावेजों का अध्ययन करना चाहिए और भारतीय कूटनीति की असाधारण सकलता पर विश्वास करना चाहिए।
पहलगाम में जो घटा वह अनायास नहीं था। यह तो सतत प्रक्रिया के तौर पर अक्टूबर 1948 से चल रहा है। भारत लगातार इसका जवाब देते हुये अपनी विकास और शालीनता की राह पकड़े हुए है, जिसका लाभ हम, भारत के नागरिकों को मिला है और मिल भी रहा है। सवाल धार्मिक और अधार्मिक का है। पाकिस्तान की नींव ही अधार्मिक आधार पर है और भारत सदा से धर्मनिरपेक्षता का संवाहक बना रहा। भारत और महात्मा गांधी के महत्व को अप्रैल 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र का मसौदा बन रहा था तब गांधी से विदेशी संवाददाताओं ने उनका वक्तव्य माँगा था से समझा जा सकता है।
तब बापू ने कहा था, “भारत की राष्ट्रीयता का अर्थ है अंतर्राष्ट्रीयता। जब तक मित्र राष्ट्र युद्ध की प्रभावकारी शक्ति में तथा उसके साथ चलने वाली धोखाधड़ी और जालसाजी में विश्वास नहीं त्याग देते और जब तक वे सब जातियों तथा राष्ट्रों की आजादी तथा समानता पर आधारित सच्ची शांति गढ़ने के लिए दृढ़ संकल्पित नहीं होते, तब तक न तो मित्र राष्टों के लिए शांति है और न संसार के लिए। भारत की आजादी संसार की सब शोषित जातियों को प्रदर्शित कर देगी कि उनकी आजादी निकट है और आगे से किसी भी हालत में उनका शोषण नहीं किया जाएगा।”
गांधी आगे समझाते हैं, “शांति औचित्यपूर्ण होनी चाहिए। उसमे न तो दंड और न ही बदले की भावना के लिए स्थान होना चाहिए। जर्मनी और जापान अपमानित नहीं होने चाहिए। सशक्त कभी बदले की भावना नहीं रखता। इसलिए शांति के फल का समान वितरण होना चाहिए।” परंतु ध्यान देने योग्य मूल बात यह है कि पाकिस्तान के शासकों जिसमें जिन्ना प्रमुख हैं, भारत या अपने सपनों के देश पाकिस्तान की स्वतंत्रता के लिए कभी जेल गए ही नहीं। यही स्थिति तत्कालीन “भारतीय मुस्लिम लीग” की भी रही। उसका भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना नहीं रहा। इसीलिये अधिकांश पाकिस्तानी विभाजन के संघर्ष को ही स्वतंत्रता का संघर्ष समझते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का भौगोलिक क्षेत्र वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश भी रहा है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरुरी है कि आजादी का यह संघर्ष मूलतः महात्मा गांधी के विचारवान नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लड़ा था। भगत सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे तमाम अन्य जो कांग्रेस से असहमत थे, वे भी संघर्ष में रत रहे। लेकिन भारतीय मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कमोवेश इस संघर्ष का हिस्सा नहीं रहे।
शायद, यह एक वजह है कि पाकिस्तान का भारत के साथ कभी जुड़ाव हो नहीं पाया। पाकिस्तान का नेतृत्व हमेशा ग्लानि भाव से ग्रसित ही रहा। आंतरिक तौर पर वह समझ रहा था कि विभाजन का संघर्ष आजादी का संघर्ष नहीं है। हजारों हजार भारतीयों ने आजादी के लिए अपने प्राण दिए और यातनाएं सहीं।पाकिस्तान का यह ग्लानि भाव ही भारत से स्थायी टकराव का कारण भी बना रहा है।
दरअसल जिन्ना के दिमाग में भी पाकिस्तान को लेकर कभी भी कोई स्पष्ट खाका नहीं था। पाकिस्तान का नाम व नारा मूलतः कवि मोहम्मद इकबाल (सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा के रचियता) ने दिया था। सन 1930 में मुस्लिम लीग का वार्षिक सम्मेलन इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ, जिसकी अध्यक्षता सर मो. इकबाल कर रहे थे। यहाँ अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने पहली बार दो राष्ट्रों के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए “पाकिस्तान” का औपचारिक उद्घोष किया। वे ब्रिटिश राज्य के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में इसे स्थापित करना चाहते थे। इसमें उन्होंने पी(P.) से पंजाब, ए (A) से ब्रिटिश साम्राज्य का अफगानी प्रान्त (NWFF) K (क) कश्मीर और एस (S) से सिंध को शामिल किया। पांचवा बलूचिस्तान इसमें बाद में शामिल हुआ। पाकिस्तान यानी पवित्र लोगों की भूमि। इसमें मूलतः उर्दू भाषी क्षेत्र ही शामिल थे। पूर्वी बंगाल (पूर्वी पाकिस्तान) मूल विचार में शामिल नहीं था और वह कभी दिल से पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन पाया।
अंततः उससे अलग होकर एक नया राष्ट्र बन गया। जिन्ना और मुस्लिम लीग “भारत छोड़ों” आंदोलन का हिस्सा भी नहीं बने। वे लगातार अंग्रेजों से सौदेबाजी करते रहे और अंततः पाकिस्तान बना पाने में सफल हो गए। पाकिस्तान बना। उसका विघटन हुआ। अब वह अगले विघटन की ओर है क्योंकि उसे जोड़े रह सकने वाला कोई माध्यम नजर नहीं आ रहा है। वहीँ भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसमें बड़ी संख्या में लोग आजादी के संघर्ष से जुड़े रहे। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी जो लोग वहां से भारत आए वे आजादी के संघर्ष के अप्रत्यक्ष सहभागी तो थे ही। वे अंग्रेज परस्त नहीं थे।
यह सच है कि पाकिस्तान ने राष्ट्रीयता से ज्यादा विभाजन और अलगाव को अपनाया। एक ओर भारतीय संविधान का बनना आजादी के काफी पहले शुरू हो गया था। वहीँ पाकिस्तान में यह प्रक्रिया 12 अगस्त 1947 को शुरू हुई। वहां पहला संविधान 23 मार्च 1956 को लागू हुआ। सन 1958 में सैन्य तख्तापलट के बाद इसे रद्द कर दिया गया। इसके बाद सन 1962 में नया संविधान लागू किया गया। यह भी सन 1969 में रद्द कर दिया गया। अंततः 14 अगस्त 1973 को एक और संविधान लागू हुआ जो अभी तक विद्यमान है। गौरतलब इसके पहले दिसंबर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान, पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बन चुका था।
लोकतांत्रिक संविधान होने के बावजूद आज वहां सेना का बोलबाला है और पाकिस्तान एक इस्लामिक धार्मिक राष्ट्र है। भारत की सुदृढ़ता के पीछे भारत का संविधान ही है। परंतु आज यहां इस पर सवाल उठाए जा रहे हैं और नागरिकों एक वर्ग भारत को एक धार्मिक राष्ट्र बनाने की वकालत कर रहा है, परंतु उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हो रही। जबकि हम पड़ौसी पाकिस्तान और अब बंग्लादेश के हालत, खासकर ध्रार्मांधता के उभार के बाद के प्रलयंकारी परिणाम स्पष्ट तौर पर देख रहे हैं।
पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति को हल्की भाषा में कुछ इस तरह से समझाया जा सकता है कि “आप मक्खी को नहीं समझा सकते कि फूल कचरे से ज्यादा खूबसूरत है।” पाकिस्तान ने भारत से अलग होने के बाद अपने लिये कचरे को ही चुना। जबकि संविधान सभा में जिन्ना ने जो भाषण दिया था वह पाकिस्तान की वर्तमान राजनीतिक सोच के एकदम विपरीत ही था। अब जबकि पाकिस्तान सार्वजानिक तौर पर यह स्वीकार कर चुका है कि उसने आतंकवाद को पोषित किया है तो, इसके भारत के पास कहने या सिद्ध करने को कुछ बचता ही नहीं है।
गौरतलब है महात्मा गांधी ने अक्टूबर 1947 में लिखा था, “ताकत का इस्तेमाल करके पाकिस्तान को नष्ट करना स्वराज को नष्ट करना होगा।” भारत में 22 अप्रैल की घटना के बाद से लगातार पाकिस्तान के नाश की बातें की जा रहीं हैं और वहीँ दूसरी ओर अपने ही देश के अल्पसंख्यकों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। यह तो पाकिस्तानी मनोवृत्ति का दोहराव ही है। गौर करिये, जो गरजते हैं वे बरसते नहीं और थोथा चना बाजे घना जैसे मुहावरों की जद में आने से भारत जैसे राष्ट्र को बचना चाहिए।
पाकिस्तान को यह भी याद रखना चाहिए कि महात्मा गांधी ने अपना अंतिम उपवास 13 जनवरी 1948 को प्रारंभ किया था। वे जानते थे इस प्रक्रिया में उनकी मृत्यु भी हो सकती है। तभी तो उन्होंने कहा था, “परंतु मृत्यु मेरे लिये यशस्वी उद्दार होगी और इससे तो अच्छी ही होगी कि मैं भारत, हिन्दू धर्म, सिख धर्म तथा इस्लाम का विनाश निरुपाय होकर देखता रहूँ।”
इस उपवास की बदौलत भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में दंगे शांत हो गए। तभी तो पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री सर मोहम्मद जफ़रुल्ला खां ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को सूचना दी थी, “(गांधी जी के) उपवास की प्रतिक्रिया स्वरूप दोनों उपनिवेशों के बीच मैत्री की भावना तथा इच्छा की एक नई और जबरदस्त लहर ने संपूर्ण उप-महाद्वीप को ढक लिया है। सौहार्द की वह लहर अब भटक गई है।आवश्यकता उसकी वापसी की है। हमें समझना होगा कि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में कोई भी राष्ट्र युद्ध जीत नहीं सकता। युक्रेन और रूस का आपसी युद्ध इसका नवीनतम उदाहरण है। इसलिए पाकिस्तान को अपने भविष्य को लेकर मनन करना होगा और भारत को भी बडप्पन दिखाना ही होगा। हमें विजय की भावना का अतिक्रमण कर किसी समाधान पर पहुँचने का सकारात्मक प्रयास करना होगा। स्थायी तनाव जैसे किसी मनुष्य के लिए घातक होता है ठीक वैसे ही वह राष्ट्रों के लिए भी घातक ही होता है।
भारतीय नागरिकों की हत्या एक जघन्य कृत्य है। लेकिन ऐसा कोई रास्ता तो निकालना ही होगा कि इसकी पुनरावृर्ती न हो। यह बेहद जटिल और नाजुक प्रक्रिया है, जिसके लिए असाधारण मेधा व समर्पण की आवश्यकता है। जाहिर है यह कार्य भारत ही कर सकता है और उसे इसे करना ही चाहिए। वैसे अभी जाति जनगणना नया मसला उछलने से अनावश्यक उग्रता में कमी आ रही है। परंतु मसला स्थायी हल निकालने का है, जो बलप्रयोग से नहीं निकल पायेगा। हमें याद रखना होगा दिसंबर 1947 (बड़े दिन यानी क्रिसमस) में आकाशवाणी से बोलते हुए गांधी जी ने भारत द्वारा कश्मीर में सैनिक भेजे जाने की कार्यवाही समर्थन किया था। मगर दोनों के बीच रियासत के बँटवारे के प्रस्ताव की निंदा की थी।
ज्ञातव्य है कि जम्मू-कश्मीर की अवाम और राजा ने भारत में विलय पर अपनी सहमति दे दी थी। परंतु पाकिस्तान ने उसे अभी तक स्वीकार नहीं किया है। अब तो चीन और एक हद तक अमेरिका भी इस विवाद का हिस्सा बन गए हैं। आवश्यकता है इस विषय पर किसी प्रक्रियागत प्रतिक्रिया की जिससे कि समाधान का रास्ता खुल सके। और यह केवल आपसी संवाद से ही संभव है। हमें अपने गुस्से को काबू में रखना होगा। महात्मा गांधी समझाते हैं, “क्रूरता का उत्तर क्रूरता से देने का अर्थ अपने नैतिक और बौद्धिक पतन को स्वीकार करना है।”