पराम्बा भगवती राज राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी सबके अन्त: करण में निवास करती हैं। सभी के सतीत्व की रक्षा भी करती हैं और मदमत्तों के गर्व को नष्ट करके उन्हें भी पुनः स्थापित करती हैं। श्रीमद् देवी भागवत में कथा आती है कि अयोध्या में एक शर्याति नाम के राजा थे।
एक समय आखेट के लिए महाराज शर्याति अपने पूरे समाज के साथ जंगल की ओर गए। वहां च्यवन ऋषि का आश्रम था।च्यवन जी तपश्चर्या करने में इतने अधिक अन्तर्मुख हो गए थे कि उनके शरीर में दीमक लग गया था। महाराज शर्याति के साथ उनकी एक सुन्दरी पुत्री भी थी,जो अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई महर्षि च्यवन की तपस्थली की ओर चली गई। उसके देखा कि एक मनुष्य के आकार का मिट्टी का ढेर वहां लगा हुआ है लेकिन आंखें चमक रही थीं। सुकन्या ने कांटा उठाया और ऋषि के मना करने पर भी उनकी आंखों में कांटा चुभा दिया।

ऋषि की आंखों से रक्त प्रवाहित होने लगा। उनके कोप से महाराज शर्याति समेत उनके सैनिकों के मल मूत्र का अवरोध हो गया। सबलोग बहुत दुःखी हो गए। फिर ये पता चला कि ऋषि आश्रम में ऋषि का अपमान हुआ है। शर्याति जी च्यवन ऋषि के पास गए,विनती की,क्षमा याचना की, और कहा कि महाराज हम ऐसा क्या करें जिससे आपके कष्ट का निवारण हो जाय। ऋषि ने कहा कि जिसने हमारा अपराध किया है उसी को हमारी सेवा करनी होगी, क्यूंकि अब तो मैं स्वयं चलने फिरने में असमर्थ हो गया।

राजा शर्याति ने च्यवन ऋषि के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। और सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि के साथ करके राजधानी लौट आए। सुकन्या बड़ी ही सावधानी पूर्वक ऋषि की सेवा में संलग्न हो गई। एक बार च्यवन आश्रम में अश्विनी कुमार(देव वैद्य) आए, सुकन्या को देखा तो उनकी परीक्षा लेने की दृष्टि से सुकन्या के सामने प्रस्ताव रखा कि तुम इन अंधे के साथ क्यूं हो। चलो देवलोक में हमारे साथ स्वर्ग का आनन्द लो। सुकन्या ने कहा कि 


*वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना*
*अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना*।
*ऐसेउ पति कर किय अपमाना*
*नारि पाव जमपुर दुःख नाना*

पति वृद्ध हो,रोगी हो,मूर्ख हो, निर्धन हो,अन्धा हो बहरा हो, कैसा भी हो पत्नी के लिए वही आदरणीय है।तब अश्विनी कुमारों ने कहा कि हम तुम्हारे पति की युवावस्था और सुन्दर नेत्र पुनः दे सकते हैं। एक सरोवर का निर्माण करते हैं, उसमें हम दोनों भाई और तुम्हारे पति तीनों एक साथ प्रवेश करेंगे और जब निकलें तो तुम जिसके गले में वरमाला डाल दोगी उसके साथ तुम्हें रहना होगा।

सुकन्या ने ऋषि से पूछा कि क्या हमें इन वैद्यों का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? तो च्यवन जी ने कहा कि तुम इनका प्रस्ताव स्वीकार कर लो। सुकन्या ने वैसा ही किया। किन्तु जब सरोवर से तीनों निकले तो उनका स्वरूप बिल्कुल एक सा था पहचानना ही कठिन हो गया कि इसमें च्यवन जी कौन हैं।उस समय सुकन्या भगवती राज राजेश्वरी की शरण में गई और प्रार्थना की कि मां! हमारे सतीत्व की रक्षा करें। जगदम्बा की कृपा से सुकन्या को वह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई जिससे कि उसने च्यवन ऋषि को पहचान लिया और उन्हीं के गले में वरमाला पहना दिया।

ऐसे भगवती अपने भक्तों के सतीत्व की रक्षा करती हैं।इसी प्रकार एक बार इन्द्र ने राज्य मद से मत्त होकर अपने गुरु का अपमान कर दिया और जब भी राज सत्ता धर्म सत्ता को अपमानित करती है तो उसे राज्य च्युत होना ही पड़ता है। इन्द्र के साथ भी वही हुआ। असुरों ने स्वर्ग पर आक्रमण किया, देवराज इन्द्र स्वर्ग छोड़कर भाग गए। उसी समय महर्षि विश्वामित्र की कृपा से राजा नहुष को स्वर्ग की प्राप्ति हुई, वहां इन्द्रासन को खाली देखकर नहुष स्वर्ग का राजा बन बैठा।

स्वर्ग की प्रत्येक वस्तु पर अपना अधिकार करने के पश्चात उसकी दृष्टि शची (जो इन्द्र की पत्नी थीं) पर गई।उस समय शची ने भी परामबा भगवती की शरण ग्रहण की तो जगदम्बा ने उनके सतीत्व की रक्षा की।इस प्रकार आज भी अगर माताएं बहनें भगवती की आराधना करें तो उनका शील सुरक्षित हो सकता है।