*अलंकारयुक्तो हि सिंहासनस्थो*
*जनोत्कर्षभावं सदा धारयन्त*:।
*सरोजाम्बुवत् नित्यनिर्लिप्तमुक्तो*
*मुकुन्दस्वरूपं गुरुं वै नमाम:*
(श्लोकार्थ) 
मनुष्यों के उत्कर्ष के भाव से भावित सदा अलंकारों से युक्त और सिंहासनस्थ हैं। और इतना होने पर भी कमल पत्रवत् निर्लिप्त और मुक्त हैं ऐसे मुकुंद स्वरूप गुरु देव को नमस्कार है।

 इसलिए भगवान ने सदगुरु की महिमा का वर्णन किया है।
*नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं*
*प्लवं सुकल्पंं गुरुकर्णधारम्*।
*मयानुकूलेन नभस्वतेरितं*
*पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स* *आत्महा*।।
मानव कल्याण के लिए यह मानव शरीर बहुत बड़ा साधन है।इस देव दुर्लभ मानव जीवन को भगवान ने हमारे लिए सुलभ कर दिया। 
ये संसार सिंधु से पार कराने के लिए जहाज का काम करता है। जैसे जहाज में कर्णधार होता है वैसे ही यहां
     *गुरुकर्णधारं*
गुरु कर्णधार होते हैं।
*करनधार सदगुरु दृढ़ नावा*
*दुर्लभ साज सुलभ कर पावा*
यदि हमसे कोई अनुचित कार्य हो रहा हो तो हमारे सदगुरु वहां हमारे जीवन में ब्रेक का काम करते हैं।रोक देते हैं। और हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं। हमें  हमारे जीवन में कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने वाले गुरु की आवश्यकता है।साथ बैठकर ताश खेलने वाला नहीं। हां में हां मिलाने वाला नहीं।
*कुपथ निवारि सुपंथ चलावा*।
*गुन प्रकटै अवगुनहिं दुरावा*।।
कुपथ से अलग कर सुपंथ में लगाना और हमारे अवगुणों को दूर करके गुणों को प्रकाशित करना ही गुरु का कार्य होता है।
इसीलिए एक कहावत है कि
*पानी पिए छान*      और
*गुरु करे जान*।
इसलिए भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जी ने कहा कि-
*श्राव्यं सदा किं*
*गुरुवेदवाक्यं*
निरन्तर क्या सुनना चाहिए?? तो कहते हैं कि
*गुरुवेदवाक्यं*
केवल गुरु वाक्यं नहीं, वेदानुकूल गुरु वाक्य श्रवण करना चाहिए। वेद प्रतिकूल  उपदेश यदि गुरु भी करते हों तो उसे आचरण में नहीं उतारना चाहिए। यही कारण है कि बहुत से लोग शास्त्रों में जो गुरु की महिमा बताई गई है उसको पकड़ लेते हैं। लेकिन जो गुरु की योग्यता बतायी गई है उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते हैं। अतः हमें शरणागति के पूर्व ही विचार करके गुरु की शरण में जाना चाहिए।जब किसी अयोग्य ड्राइवर के हाथ में हम अपनी गाड़ी नहीं सौंप सकते तो जीवन रुपी गाड़ी किसी अयोग्य को कैसे समर्पित कर सकते हैं। इसलिए खूब विचार करके ही शरणागति होनी चाहिए। और शरणागति के बाद विचार नहीं करना चाहिए।