धर्म रथ में चके, घोड़े ध्वजा पताका और रस्सियों का वर्णन कर लेने के पश्चात भगवान श्रीराम अब सारथी का वर्णन करते हैं- ईश भजन सारथी सुजाना। विरति चर्म संतोष कृपाना।।

रथ में सारथी जो होता है वही रथ का चालक, मार्गदर्शक, और नियंत्रक सब-कुछ होता है। श्रीराम जी कहते हैं कि ईश्वर का भजन ही सुजान सारथी है। वैसे ईश्वर शब्द का अर्थ भगवान शंकर के में रूढ़ है। ईश भजन का अर्थ शिव जी भक्ति करना। हम यह देखते हैं श्री राघवेन्द्र के जीवन में ईश भजन का प्राधान्य पग पग पर दृष्टिगोचर होता है। जिसका संकेत हमें गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज से मिलता रहता है-

तब मज्जन करि रघुकुल नाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा।।

भगवान रघुकुल नाथ ने गंगा स्नान करके पार्थिवेश्वर का पूजन कर प्रणाम किया। इतना ही नहीं जब सेतु बंध होता है तो सेतु पर चरण रखने के पहले भगवान श्रीराम ने भगवान शिव की स्थापना का संकल्प किया-

करिहउं इहां शंभु थापना। मोरे हृदय परम कल्पना।।

श्री राघव ने कहा कि मैं यहां पर शिव जी की स्थापना करूंगा। क्यूंकि पहले से ही मेरे मन में यह कल्पना है कि भगवान शंकर की स्थापना करके ही लंका की यात्रा करना उचित होगा। इस कल्पना के अनुसार तत्काल वहां शिव जी का मंदिर बनता है। उस मंदिर में प्रतिष्ठा करने के लिए शिव लिंग की आवश्यकता थी सो श्री हनुमान जी महाराज को काशी भेंजा गया। श्री हनुमान जी वायु वेग से चल कर काशी पहुंचे।

एक कथा ऐसी भी आती है। धर्म सम्राट यति चक्र चूड़ामणि पूज्य पाद स्वामी श्री करपात्री जी महाराज कहते थे कि भगवान शंकर की प्रतिष्ठा के लिए रावण को बुलाया गया। भगवान श्रीराम ने सुना कि रावण शिव भक्त भी है और प्रतिष्ठा कर्म भली भांति जानता है तो पुरोहित के रुप में भगवान श्रीराम ने उसी को बुलाया क्यूंकि वह तंत्र शास्त्र का ज्ञाता था। रावण आया और श्री जानकी जी को पुष्पक यान में बैठाकर ले आया, भगवान श्रीराम के दक्षिण पार्श्व में बैठा दिया, क्यूंकि धर्म कार्य में नारी दाहिने बैठती है। प्रभु के दक्षिण पार्श्व में श्री सीता जी को बैठाकर विधिवत प्रतिष्ठा कर्म करवाया। इसके बाद भगवान श्रीराम ने रावण से कहा कि प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हो गया अब आप दक्षिणा स्वीकार कर लीजिए। तो रावण ने कहा कि तुम क्या दक्षिणा दोगे मुझे, तुम तो तपस्वी हो, तुम्हारे पास है ही क्या? हमारे पास सोने की लंका है और दक्षिणा में स्वर्ण दान का ही विशेष महत्व है। तो भगवान श्रीराम बोले कि हमारे पास भले ही कुछ न हो लेकिन प्रतिष्ठा कर्म की सांगता तो तभी सिद्ध होगी जब आप हमसे कुछ स्वीकार कर लें। क्यूंकि बिना दक्षिणा का यज्ञ तमोगुणी माना जाता है-

विधिहीनमसृष्टान्नं, मंत्रहीनमदक्षिणम्।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं, तामसं परिचक्षसे।।

जिसमें धर्म शास्त्र की विधि नहीं, जिसमें अन्न दान नहीं, जिसमें वेद मंत्रों का शुद्ध उच्चारण न हो, और जिसमें ब्राह्मणों को प्रर्याप्त दक्षिणा नहीं दी जाती तथा जिसमें श्रद्धा नहीं हो वह यज्ञ तामसिक यज्ञ माना जाता है। तो जब-तक आप दक्षिणा नहीं लेंगे तब-तक हमारे यज्ञ में पूर्णता नहीं आएगी। तो रावण ने कहा कि यदि दक्षिणा देनी ही है तो तुम मुझे ये दक्षिणा दो कि तुम्हारे प्रति हमारा बैर भाव बना रहे। जो तुमको देखकर बार-बार मेरे मन में मोह हो जाता है वह न हो।

कथा आती है कि रामेश्वर की प्रतिष्ठा के समय श्री हनुमान जी को काशी से लौटने में विलम्ब हो गया। और मुहूर्त निकल रहा था तो रावण ने कहा कि मुहूर्त बीत रहा है और शिव लिंग आया नहीं, उसी समय भगवान श्रीराम ने बालुका का शिवलिंग बनाया और उसी में रावण ने प्रतिष्ठा कराई। जब किसी देवता की प्रतिष्ठा होती है तो उस समय उस मंदिर में उस देवता का जन्म होता है। जब जन्म हुआ तो जन्म के समय जितने भी संस्कार होते हैं वो सब होना चाहिए। नामकरण भी होना चाहिए। तो लोगों ने भगवान श्रीराम से पूछा कि इनका नाम क्या होगा? श्रीराम जी बोले- रामेश्वर।

किसी ने कहा कि नाम का अर्थ भी बता दें तो श्री राम जी ने कहा- रामस्य ईश्वर: रामेश्वर:।अर्थात् जो राम का स्वामी हो, राम जिनके सेवक हों वो हुआ रामेश्वर।

ये सुनकर शिवलिंग में से शिवजी बोल उठे- नहीं। यहां षष्ठी तत्पुरुष समास नहीं होगा। यहां बहुब्रीहि होगा राम:ईश्वरो यस्य स रामेश्वर:। अर्थात् राम जी स्वामी और शंकर जी सेवक।

तब वहां उपस्थित ऋषिगण बोले कि दोनों का अर्थ हमें मान्य नहीं है। हमलोग ये मानते हैं कि- रामश्चासौ ईश्वरश्चेति रामेश्वर: जो राम वही ईश्वर, जो ईश्वर वही राम। यहां "कर्म धारय" समास होगा। दोनों में कोई भेद नहीं है।

जब श्री हनुमान जी काशी से शिव लिंग लेकर आए तो देखा कि यहां तो प्रतिष्ठा हो चुकी है मेरा परिश्रम व्यर्थ हो गया। तो वहां पर दोनों शिव लिंग प्रतिष्ठित किया गया। अस्तु। 

ईश भजन सारथी सुजाना यानि ईश्वर का भजन ही सुजान सारथी है।