पद्म विभूषण संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज जी का यूँ रुखसत हो जाना संगीत प्रेमियों के लिए किसी सदमे से कम नहीं है। उनकी शख़्सियत में एक ग़ज़ब की कशिश रही है। जो एक बार उनसे मिल लेता था वो उनके अपनों में यूँ शामिल हो जाता जैसे उसका उनसे बरसों से नाता रहा हो। पंडित जी की आवाज़ में खुदा का नूर बसता रहा और उनकी अदायगी का मुनफ़रिद अंदाज़ रूह को सरशार कर जाता था। उनकी आवाज़ का सहर सिर चढ़ कर बोलता रहा, उनकी सुबह और शाम समर्पित रही संगीत को और संगीत की स्वर लहरियों में बसती रही उनकी रूह।  

पंडित जसराज की आवाज़ का विस्तार साढ़े तीन सप्तकों तक है। उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की 'ख़याल' शैली की विशिष्टता को दिखलाता है। उन्होंने बाबा श्याम मनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में 'हवेली संगीत' पर व्यापक अनुसंधान कर कई नई बंदिशों की रचना भी की है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है उनके द्वारा अवधारित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी, जो 'मूर्छना' की प्राचीन शैली पर आधारित है। इसमें एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं। पंडित जसराज के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम 'जसरंगी' रखा गया है।

हालाँकि इस सफर में संघर्ष बेपनाह था। ज़िंदगी आसान नहीं थी जब तीन साल की उम्र में पिता से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की और तक़रीबन पौने चार साल की उम्र आते आते पिता का साया सिर से उठ जाना जीवन में संघर्ष तो लिख ही देता है। इस अथक साधना में भरपूर साथ दिया उनकी हम सफ़र मधु शांतराम ने जो मशहूर फ़िल्म निर्देशक व्ही शांताराम की बेटी थी। 

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पंडित जसराज का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जिसकी चार पीढ़ियां हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समर्पित रही। पिता पंडित मोती राम मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे। बहुत कम उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया और फिर बड़े भाई पंडित मनीराम के देख रेख में इनकी ज़िन्दगी के नये सफर की शुरुआत हुई। पंडित जसराज को उनके पिता पंडित मोतीराम ने संगीत की शुरुआती दीक्षा दी और बाद में उनके बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण ने उन्हे तबला संगतकार में प्रशिक्षित किया। वह अपने सबसे बड़े भाई पंडित मनीराम के साथ  एकल गायन प्रस्तुतियों में अक्सर शामिल होते थे। पंडित जसराज ने 14 साल की उम्र में एक गायक के रूप में प्रशिक्षण शुरू किया। मंच कलाकार बनने से पहले पंडित जसराज ने कई वर्षों तक रेडियो पर एक कलाकार' के रूप में काम किया।

बेगम अख़्तर को सुनकर गायिकी की तरफ हुआ रुझान

पंडित जी बताते थे कि गायिकी की तरफ़ उनका रुझान बेगम अख़्तर की आवाज़ को सुनकर बढ़ा। क़िस्सा कुछ यूँ है की जब पंडित जी स्कूल जाने के लिए निकलते थे रास्ते में एक छोटा सा रेस्टोरेंट था। उसमें बेगम अख्तर की गायी ग़ज़ल का रिकॉर्ड रोज़ बजता था- "दीवाना बनाना हैं तो दीवाना बना दे वर्ना कहीं तक़दीर तमाशा ना बना दे।" तब तो इस Philosophy का मतलब कुछ नहीं समझ पाते थे मगर वहीं से गाने का शौक़ उनके अंदर पैदा हो गया। स्कूल से लौटते वक्त उसी फुटपाथ पर बैठे घंटों बेगम अख़्तर की ग़ज़लें सुना करते थे। 

वैसे पंडित जी की शिक्षा की शुरुआत तबला वादन से हुई क्यूँकि यह उनके परिवार की प्रथा थी। पिता जी के गुज़र जाने के बाद बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण जी ने तबले की तालीम शुरू की और तक़रीबन एक साल में अच्छा बजाने लगे और फिर सिर्फ़ सात साल की उमर में स्टेज पर कार्यक्रम शुरू कर दिए और ये सिलसिला लाहौर तक जारी रहा। 

बाक़ायदा गायिकी में शुरुआत नंद उत्सव से हुई। पंडित जसराज की कही बात को रखूँगी कि लाहौर में बड़े भाई साहब के एक शिष्य थे बंसी लाल जी। उनका म्यूजिक कॉलेज था सरस्वती म्यूजिक कॉलेज। यह दिल्ली में भी है। उसकी दर वो दीवार पर पंडित जी ने पहला ‘सा‘ लगाया था और वो दिन था नन्द उत्सव का।

पंडित जी बताते थे कि इस दौरान बड़ी दिलचस्प घटना हुई। जब पंडित जी ने कृष्ण रंग प्रस्तुत किया तो वहाँ बैठे दर्शकों को लगा कि उन्होंने साक्षात कृष्ण दर्शन किए हैं। पंडित जी खुद कहते थे कि आप यक़ीन मानिए कि मेरी इससे पहले कृष्ण जी से कोई दोस्ती ही नहीं थी। कोई लेना देना नहीं था। मैं तो हनुमान जी का पुजारी था। राम जी तक हमारी पहुँच थी मगर ये बीच में साहब आकर हमारी उंगली पकड़ कर उठा कर ले गए। उन्होंने कहा कि  जसराज जो तुम गाते हो वो मुझे जल्दी पहुँचता हैं। तभी पंडित जी के लिए ये कहा जाता था कि रसराज जसराज की जसरंगी की जुगलबंदी का कोई सानी नहीं। 

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पंडित जी से पहली मुलाक़ात 

पंडित जी के साथ कई कार्यक्रम करने का मौक़ा मिला। उनका सहज भाव, मंद-मंद मुस्कुराना और बहुत स्नेह से हर बात पूछना,समझना और फिर हलके से मुस्कुरा कर जय हो कहना। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात HIFA यानी हरियाणा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स के एक कार्यक्रम के दौरान हुई। अमूमन कार्यक्रम से पहले कलाकार बताया जाता है कि बतौर एंकर उनके बारे में क्या बोलने जा रहे हैं। लिहाज़ा मैं भी उनके पास गई और उनसे कहा कि ये मैं बोलूँगी। जब मैं उनको स्क्रिप्ट सुना रही थी तो यकीनन उसमें उनकी तारीफ़ थी। पूरा सुनने के बाद बोले आपने बहुत तारीफ़ की है। इसे कम कर दीजिए बल्कि मेरा क्या है कुछ नहीं। ये जो मेरे साथ संगत कर रहे है इनका ज़िक्र कीजिए। इनके साथ की वजह से आपको मेरी गायकी सुंदर लगती है। मैं उनकी तरफ़ देखती रह गई। इतना बड़ा कलाकार और इतना विनम्र! 

सहज जीवन दर्शन  

पंडित जी से जब भी मिलना हुआ हमेशा कुछ नया सीखा। भक्ति उत्सव के दौरान उनका ये कहना कि मैं कुछ नहीं सब कुछ वो है। वो जो करवाना चाहता है वो मुझ से करवाता है और मैं एक कठपुतली से ज़्यादा कुछ नहीं। यानी ईश्वर के प्रति उनका भक्तिभाव नतमस्तक कर जाता था। ज़िंदगी को लेकर एक दफ़ा मैंने उनसे कहा कि पंडित जी ज़िंदगी में कभी आपको लगा कि ये ऐसा होता तो ज़्यादा अच्छा होता। चीजें हमारे हिसाब से हो तो ज़्यादा बेहतर लगता है। इस पर वे  मुस्कुराते हुए बोले- क्यूँ बांधना है इनको? इनको खुला छोड़ दो। जब जब जैसा लिखा है तब तब वैसा होना है। चिंता करने से वो बदलेगा नहीं। और फिर कई बार हंसते हुए पूछा- वैसे बदलना क्या है आपको?

ऐसी शख़्सियतें होती हैं सदियों की अमानत

राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम 'शख़्सियत' में कला संस्कृति से जुड़ी देश की जानी मानी हस्तियों का मैंने इंटरव्यू किया है। वे इस कार्यक्रम को जब मौक़ा मिलता देखते भी थे। जब मैंने उन्हें आमंत्रित किया तब उन दिनों उनकी तबीयत नासाज़ थी। लिहाज़ा एक बार फ़ोन किया तो कहा कि नहीं आ पाएँगे। दोबारा जब दिल्ली आए तो फिर सब तय होने के बाद भी नहीं आ पाए। तीसरी बार जब वो दिल्ली आने वाले थे तभी मैंने मुंबई फ़ोन किया तो हंसते हुए बोले- "माँ, बहुत अच्छा कार्यक्रम हैं, आना चाहता हूँ। आ नहीं पा रहा हूँ।" मैंने भी मौक़ा देखा और हंसते हुए कहा-"पंडित जी, देखिए दो बड़े कलाकारों के साथ ऐसा हुआ है वे आज कल करते रहे और फिर दुनिया से रुखसत हो गए। नहीं आ पाए मेरे कार्यक्रम में।" पंडित जी फ़ौरन ज़ोर से हंसे और बोले- "ऐसा है तो मैं आज ही आ जाता हूँ और जब स्टूडियो पहुँचे तो बोले-"डरा कर स्टूडियो लाना कोई समीना जी से सीखे।" 

ऐसी कई यादें हैं जिनका ज़िक्र करने बैठो तो वक्त कम पड़ जाए। ऐसी शख़्सियतें सदियों की अमानत होती हैं उनका यूँ रुखसत हो जाना तकलीफ़देह होता है लेकिन अपनी आवाज़ के ज़रिए वो हम सबके दिल और रूह में हमेशा क़ायम दायम रहेंगे। उनके लिए, उनकी मेहनत और तपस्या के लिए ये कहना ज़रूरी हो जाता है कि

हाथों की लकीरों में मुक़द्दर नहीं होता, अज़्म का भी हिस्सा हैं ज़िंदगी बनाने में...

(लेखिका समीना राज्य सभा टीवी, लोकसभा टीवीव दूरदर्शन न्यूज की वरिष्ठ एंकर रहीं हैं)