Rahat Indori: इस सख़्त समय में एक राहत का जाना

राहत इंदौरी की बात अलग है। उनमें बस रोशनी ही नहीं, है, बल्कि लपटें हैं- आप हाथ लगाएं तो जल जाएंगे। उनमें जितने फूल हैं उतने ही शोले भी। और यह अंदाज़ उन्हें किस बात से हासिल हुआ है? ज़मीन से अपने उस जुड़ाव से जिससे किसी के भीतर अपने होने का एक भरोसा जागता है। यह अनयास नहीं है कि वे राहत कुरैशी से राहत इंदौरी हो गए। इंदौर को उन्होंने अपनी पहचान बनाया। लेकिन उम्र भर ख़ुद को हिंदुस्तानी बताते रहे- ऐसा हिंदुस्तानी जिससे उसकी ज़मीन कोई छीन नहीं सकता।

Updated: Aug 12, 2020, 06:24 AM IST

राहत इंदौरी नहीं रहे। इस वाक्य की अपनी विडंबनाएं हैं। यह बस एक शायर की नहीं, एक सलीक़े की मौत है। यह उस राहत का छिन जाना है जो हिंदुस्तान को हिंदुस्तान बनाती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह राहत बहुत सारी आफ़तों पर भारी पड़ती थी। राहत इंदौरी अपने पुरख़ुलूस अंदाज़ में जब लिखते थे कि ‘लगेगी आग तो आएंगे कई घर ज़द में / यहां पे सिर्फ़ हमारा मक़ान थोड़ी है’ तो दरअसल वे किसी शहर, किसी गली में किसी मकान को बचाने की बात नहीं करते थे, बस याद दिलाते थे कि यह मुल्क कई घरों से मिलकर बना है, एक घर जलाने वाले मुल्क भी नादानी में मुल्क भी जला डालेंगे।
इत्तिफ़ाक से यह वह समय है जब ख़ुद को देशभक्त बताने वाली ताक़तें जैसे पूरे मुल्क पर क़ब्ज़ा करने में जुटी हैं। चुनावी राजनीति को वे तरह-तरह के संकीर्ण और डरावने नारों से जोड़ रही हैं, समाज और देश में पहले से बने कई पुल तोड़ने की कोशिश कर रही हैं। ऐसे में राहत इंदौरी की ललकार जैसे सबको शर्मिंदा कर डालती थी- ‘सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में / किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है‘ ऐसे अशआर, ऐसी नज़्में, ऐसी कविताएं, ऐसे गीत तत्काल याद नहीं आते जो इस तीखेपन से इस मुल्क की विरासत पर अपना हक़ जताते हों और याद दिलाते हों कि यह देश सबका है। यहां राहत इंदौरी बिल्कुल बेमिसाल हैं।

शायरी के हिसाब से देखें तो राहत उर्दू की जानी-पहचानी धारा की नुमाइंदगी करते हैं। उनके यहां दिलों को छू लेने वाले शेर भी हैं और दिमाग़ में टिके रहने वाले भी। वे मंचों पर भी ताली बटोरते हैं और अदब की दुनिया का सम्मान भी हासिल करते हैं। ऐसा नहीं कि ऐसे शायर और नहीं हैं। बिल्कुल समकालीन समय में देखें तो वसीम बरेलवी, मुनव्वर राना या बशीर बद्र इसी अंदाज़ के शायर हैं- लोकप्रिय भी, अदबी भी। बहुत आमफ़हम अंदाज़ में की जाने वाली इनकी शायरी अपने मायनों में कई बार बहुत गहरी होती है।

लेकिन राहत इंदौरी की बात अलग है। उनमें बस रोशनी ही नहीं, है, बल्कि लपटें हैं- आप हाथ लगाएं तो जल जाएंगे। उनमें जितने फूल हैं उतने ही शोले भी। और यह अंदाज़ उन्हें किस बात से हासिल हुआ है? ज़मीन से अपने उस जुड़ाव से जिससे किसी के भीतर अपने होने का एक भरोसा जागता है। यह अनयास नहीं है कि वे राहत कुरैशी से राहत इंदौरी हो गए। इंदौर को उन्होंने अपनी पहचान बनाया। लेकिन उम्र भर ख़ुद को हिंदुस्तानी बताते रहे- ऐसा हिंदुस्तानी जिससे उसकी ज़मीन कोई छीन नहीं सकता।

लेकिन राष्ट्रवादी आग्रहों की मारी इस दुनिया में ऐसे आग्रह का क्या मतलब है? इत्तिफ़ाक़ से राहत इंदौरी एक समुदाय के रूप में उस हाशिए पर खड़े थे जिसके भीतर अलगाव का एहसास पैदा किया जा रहा है। इस लिहाज से राहत की हिंदुस्तानियत इकहरे रंग वाली नहीं थी, वह एक साझा विरासत की दावेदारी से पैदा हुई थी।

दूसरी बात यह कि राहत इंदौरी का शिल्प कई बार बहुत महीन हो उठता है। वे जब राजनीति की  तल्ख़-सख़्त ज़मीन से चलते ज़िंदगी के मैदानों में आते हैं, मोहब्बत की गलियों में आते हैं तो उनकी ग़ज़लों की चाल में एक अलग शोखी, एक अलग सा खिलंदड़ापन पैदा होता है। वे कहते हैं- ‘उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर-वंतर सब / चाकू-वाकू, छुरियां, उरियां, खंज़र-वंज़र सब।‘ यह पूरी ग़ज़ल बताती है कि बात कहने का चुलबुला अंदाज़ क्या हो सकता है।
उनका जाना हमारे समय की एक बड़ी राहत का छिन जाना है। उर्दू की ही नहीं, अदब की दुनिया उन्हें याद रखेगी। उनकी ग़ज़लें भारतीय उपमहाद्वीप में दुहराई जाती रहेंगी और याद दिलाती रहेंगी कि कोई चाहे जितना दावा करे, ‘किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।‘