Corona: टूटी रंगमंच की श्रृंखला, गहरा गया आजीविका का संकट

लॉकडाउन ने रंगमंच की समूची श्रृंखला के सामने आजीविका का संकट उत्पन्न कर दिया है। नाटक, गीत, नाच या रामलीला जैसी विधा से जुड़े डायरेक्टर, कलाकार या नेपथ्य में काम करने वाले, सभी का सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मंच फिर से वैसा सजेगा

Updated: Aug 12, 2020, 09:26 AM IST

मन्नालाल गंधर्व के पूर्वज शादी-विवाह में बाजा बजाया करते थे। मन्नालाल छोटी उम्र से ही रंगमंच से जुड़े हैं। बिलासा कला मंच की ओर से धन का घमंड नाटक के लिए मन्नालाल को बिलासा सम्मान मिल चुका है। लॉकडाउन में रंगमंच से जुड़े आयोजन बंद होने के बाद परिवार का जीवनयापन करने के लिए मन्नालाल बिलासपुर में ई-रिक्शा चला रहे हैं।

मन्नालाल गंधर्व छत्तीसगढ़ के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी मंचन करने जाते थे। उन्हें नाटक से इतना पैसा मिल जाता था कि वे अपने परिवार का जीवनयापन कर लेते थे। लॉकडाउन के बाद मंचन कार्य स्थगित चल रहा है और मन्नालाल के आय का जरिया बंद हो चुका है।

यह हाल अकेले मन्नालाल का ही नहीं है बल्कि रंगमंच से जुड़े हजारों रंगकर्मियों का है। चाहे वे फुल टाइम या पार्ट टाइम इस पेशे से जुड़े हों। रंगमंच एक सामूहिक प्रक्रिया है इसलिए नाटक, गीत, नाच या रामलीला जैसी विधा से जुड़े डायरेक्टर, कलाकार या नेपथ्य में काम करने वालों के सामने कोरोना के तहत लगे लॉकडाउन ने आजीविका का गम्भीर संकट पैदा कर दिया है।

कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने के उद्देश्य से किए गए लॉकडाउन से मंद पड़ी आर्थिक गति का असर सभी वर्गों पर पड़ा है। लॉकडाउन से पड़े प्रभाव अब साफ तौर से देखे जा सकते हैं। देश में टूट रही अर्थव्यवस्था की डोर का असर रंगमंच और सिनेमा से जुड़े लोगों पर भी पड़ रहा है।

रिक्शा चलाने को मजबूर कलाकार

लॉकडाउन से उपजे संकट का असर कुछ ही राज्यों में नहीं बल्कि सभी राज्यों में कमोबेश रंगमंच से जुड़े लोगों की है। पटना, भोपाल और आजमगढ़ जैसे जिले उत्तर भारत में रंगमंच के प्रमुख केंद्र माने जाते हैं। इसलिए इन जिलों में लोग बड़ी संख्या में रंगमंच से जुड़े होते हैं। जिस रंगमंच की शुरुआत शौक से हुई थी आज वह किसी हद तक आजीविका का साधन बन चुकी है।

देशभर में रंगमंच से कितने रंगकर्मी जुड़े हैं इसका ठीक-ठीक आंकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन रंगकर्मियों के मुताबिक एक विशाल संख्या रंगमंच से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है। यानी कलाकारों की एक विशाल आबादी के साम्मुख आजीविका का संकट उत्पन्न हो चुका है। अभी तक कोरोना राहत कोश के तौर पर केंद्र सरकार की ओर से सीधा कलाकार वर्ग के लिए किसी बज़ट की घोषणा नहीं हुई है।

रंगमंच से जुड़े लोगों के मुख्य आय का स्रोत रंगकर्म के आयोजन से होता है, लेकिन पिछले 6 माह से लागू डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत किसी भीड़-भाड़ वाले आयोजन को आपराधिक श्रेणी में शामिल किया जा चुका है और तभी से सभी नाटक स्थल को अस्थाई रूप से बंद कर दिया गया है।

रंगमंच और सिनेमा से जुड़े राकेश पाण्डेय कहते हैं, रंगमंच का रिश्ता दर्शक से है, सामने से रिएक्शन होता है तब मंचन करने का माहौल बनता है। दर्शक जबतक घर में है तबतक कुछ नहीं हो सकता। रंगमंच हमेशा उपेक्षा का शिकार रहा है, संस्कृति को लेकर आजतक कोई नीति नहीं रही है। सिनेमा का बड़ा क्षेत्र है वहां की बातें, समस्याएं सामने आ जाती हैं लेकिन रंगमंच की बातें नहीं आ पाती हैं। हम व्यक्तिगत स्तर पर जो मदद कर पाते हैं वही मदद उनतक पहुंचती है। थिएटर में क्राइसिस है।

देश भर में रंगमंच से जुड़े सभी रेपेटरी ग्रांट को बंद किया जा चुका है, कला संरक्षण और संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से संचालित संस्कृति मंत्रालय की ओर से कलाकारों के लिए कोई एडवाइजरी नहीं जारी की गई है। रेपेटरी ग्रांट के तहत कलाकारों को मिलने वाली अनुदान राशि (छह हजार प्रतिवर्ष) पिछले कुछ महीनों से कलाकारों को नहीं मिली है।

मन्नालाल गंधर्व (62) कई क्षेत्रीय और राष्ट्रीय नाटक में काम कर चुके हैं। अभी वे भोपाल में नया थियेटर से जुड़े हैं। उन्हें 'धन का घमंड' में अच्छे अभिनय के लिए "बिलासा सम्मान" भी मिल चुका है, इसके अलावा वे चरणदास चोर, सड़क, राजरक्त, आगरा बाजार, लाहौर, झूठी माया, घर की लाज जैसे कई नाटकों में काम कर चुके हैं। लेकिन लॉकडाउन में रिक्शा चलाकर जीवनयापन करने को मजबूर हैं।

मन्नालाल बताते हैं कि बचपन से कोई अन्य काम नहीं सीखा, ज्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं हूँ। जनता का प्यार मिला और थिएटर से जुड़ा रहा। परिवार में मैं अकेला हूं सम्भालने वाला। लॉकडाउन में भोपाल से बिलासपुर आ गया, यहां किराये पर ई-रिक्शा चलाकर परिवार का पेट पाल रहा हूँ। लॉकडाउन में सबकुछ बंद है रिक्शे का किराया देना मुश्किल हो रहा है। सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर रही है। बूढ़ा आदमी हूं क्या काम करूं समझ नहीं आ रहा है, किसी तरह नून, चटनी, भात चल रहा है।

हालांकि कुछ कलाकारों ने नाटक प्रस्तुति के लिए ऑन लाइन माध्यम का इस्तेमाल करना शुरू किया है लेकिन अभी रंगमंच की विधा इतनी लचीली नहीं हो सकी है कि वह ऑनलाइन माध्यम पर अपनी जगह बना सके। रंगमंच से जुड़े निर्देशक, कलाकार या नेपथ्य में काम करने वाले यह मानते हैं। कि रंगमंच प्रत्यक्ष तौर पर दर्शक से जुड़ी विधा है। वे मानते हैं कि ऑन लाइन माध्यम अभी हाल में कमाई का कोई जरिया बन पायेगा ऐसा मुश्किल है।

मुकेश पचोड़े (41) भोपाल निवासी हैं। मुकेश अच्छे अभिनय के लिए कई पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं और कई प्रसिद्ध फ़िल्म और नाटक में अभिनय कर चुके हैं वे कहते हैं रंगकर्म पहले से ही अभाव में रहा है अबतो और स्थिति खराब हो गई है। सरकार मजदूरों को प्रोत्साहन राशि दे सकती है तो कलाकारों को भी देना चाहिए। हम सरकार की किसी न किसी रूप में मदद करते हैं सरकारी योजनाओं को नाटक के माध्यम से जनता तक पहुंचाते हैं। लेकिन हमारी बुरी स्थिति में सरकार हमारी मदद नहीं कर रही है। मैंने कुछ कमाई के लिए जन्माष्टमी के बाद मास्क और सेनिटाइजर बेचने का प्लान किया है।

पत्नी की अंगूठी बेचने को मजबूर  रंगकर्मी

रंगमंच एक टीम वर्क है। बिना टीम के किसी नाटक मंचन की कल्पना नहीं की जा सकती है। किसी मंचन का साकार रूप देने के लिए टीम के रूप में ढेर सारे लोग जुड़े होते हैं। जिसमें कलाकारों के साथ ही नेपथ्य में शिल्पकार, वादक, गायक, लाइट डिजायनर, म्यूजिशियन, लाइट ऑपरेटर, इलेक्ट्रिशन, सफाईकर्मी के रूप में कई सारे लोग मौजूद होते हैं।

लॉकडाउन ने रंगमंच की समूची श्रृंखला के सामने आजीविका का संकट उत्पन्न कर दिया है। शहरों में बंद ऑडिटोरियम में आये दिन होने वाले कार्यक्रम स्थगित हैं ऑडिटोरियम में साफ-सफाई और रख-रखाव करने वालों को छुट्टी पर भेज दिया गया है। ऑडिटोरियम के बाहर चाय, नाश्ते के लगे ठेले अब अपना स्थान बदल चुके हैं।

आजमगढ़ में सांवरिया म्यूजिकल ग्रुप चलाने वाले शाह आलम सांवरिया बताते हैं कि कोरोना से दिक्कत पूरी दुनिया में है लेकिन कलाकारों के सम्मुख बड़ा संकट है। लॉकडाउन में अन्य रोजी-पेशे वाले अपना काम किसी न किसी तरह कर पा रहे हैं। कलाकार के कमाई का जरिया कार्यक्रम है लेकिन छह महीने से कलाकार घर बैठे हैं। जो पैसा रखा था सब खत्म हो चुका है घर चलाना मुश्किल हो गया है।

वे बताते हैं "मैं अभी अस्पताल में ही हूँ बेटी को अपेंडिक्स हो गया है ऑपरेशन करवा रहा हूँ, पत्नी को माइग्रेन का दर्द उठ रहा है। अंत में कुछ नहीं बचा तो पत्नी की अंगूठी बेचकर इलाज करा रहा हूँ। मैंने सोचा सामान है बिक जाएगा तो भी कोई बात नहीं जब परिवार ठीक हो जाएगा, स्थिति ठीक रहेगी तो फिर सामान बन जायेगा।"

यही स्थिति लगभग कलाकारों की है। कलाकार दूसरे कामों की तरफ़ कदम बढ़ा रहे हैं। वहीं नेपथ्य में काम करने वाले लोग भ्रम की स्थिति में बने हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ में रहने वाले सुहास नागराले ने लॉकडाउन से पहले दो लोगों के साथ मिलकर चार-पांच लाख रुपये का लाइट सेट खरीद लिया था, उन्होंने सोचा था कार्यक्रम करके पैसा चुका देंगे लेकिन अब कार्यक्रम पर रोक लग चुकी है।

सुहास बताते हैं उम्र के साथ घर की जिम्मेवारी बढ़ती जा रही है। सोचा था कार्यक्रम से पैसा कमाकर लाइट का पैसा चुका देंगे लेकिन अब समस्या हो गई। कला और कलाकार का गला घोंट दिया जा रहा है। सरकार नहीं बता पा रही है कि आगे क्या होने वाला है।

भारत सरकार के सूचना विभाग में रजिस्टर्ड समीक्षा सांस्कृतिक मंच चलाने वाले प्रेम कुमार (30) कहते हैं शौंकिया रंगमंच करने वालों को कोई दिक्कत नहीं। लेकिन जिनके कमाई का जरिया रंगमंच है वे संकट में हैं। मोदी सरकार ने कोरोना महामारी में राहत पैकेज के रूप में बीस लाख करोड़ रुपये का बजट घोषित किया लेकिन उसमें कलाकारों के लिए कुछ नहीं था।

कलाकारों की उपेक्षा का कारण बताते हुए प्रेम कुमार कहते हैं कि डॉक्टर, ड्राइवर और दुकानदार हड़ताल करेंगे तो उनसे समस्या खड़ी होगी लेकिन कलाकार के हड़ताल करने से किसी को फर्क नहीं पड़ता। आज पता चल रहा है इस वर्ग को पूछा ही नहीं जाता है। वर्ना प्रवासी मजदूरों के खातों में यदि पैसा डाला जा सकता है तो कलाकारों के खातों में क्यों सहायता राशि नहीं डाली जा सकती है?

कला के सम्मुख लॉकडाउन का संकट

मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार की ओर से तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने गांधी विचार यात्रा नाम से एक प्रोजेक्ट शुरू किया था। इसके तहत कुछ कलाकारों की नियुक्ति की गई थी लेकिन लॉकडाउन के बीच में वर्तमान भाजपा सरकार की ओर से गांधी विचार यात्रा की फाइल बंद कर दी गई।

गांधी विचार यात्रा से जुड़े निर्देशक एवं कलाकार शैलेन्द्र पासवान बताते हैं कि भाजपा सरकार आने के बाद गांधी विचार यात्रा की फाइल बन्द कर दी गई और उस पर जांच बैठा दी गई, सभी कलाकार और निर्देशक रोड पर आ गए हैं। विचारधारा के नाम पर कलाकार के साथ अन्याय तो हो रहा है साथ ही लोककलाओं को भी नष्ट किया जा रहा है। हम इसे एक तरह से राष्ट्रीय साजिश कह सकते हैं कि जब कला ही नहीं रहेगी तो लोग कैसे समाज को जागृत कर पाएंगे।

कोरोना महामारी के बाद ये बातें भी कही जा रही हैं कि आने वाले कल में रंगमंच का स्वरूप किसी हद तक परिवर्तित होगा। आशंकाएं यह भी जताई जा रही हैं कि क्या लॉकडाउन खुलने के बाद भी जनता पहले की तरह से कार्यक्रमों में इकट्ठा होगी?

इस संदर्भ में रंग समीक्षक अमितेश कहते हैं कि आगे रंगमंच का क्या स्वरूप होगा इसपर मंथन शुरू हो चुका है। कोरोना के बाद निश्चित ही पहले जैसा तो रंगकर्म नहीं होगा। दर्शक संशय में रहेंगे, लोग शायद कम आएं। यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में संवादप्रधान नाटक अधिक हो, जो दृष्टात्मक नाटक होते हैं शायद वह कम हो जाय क्योंकि संवाद पर जोर हो जाएगा। पांच महीने रंगमंच बन्द हो गया है इसका मतलब नहीं है कि रंगमंच बंद हो जाएगा, रंगमंच हमेशा गतिशील रहता है।