रीवा। देश के लिए स्पेशल ओलंपिक में पदक जीतने वाली खिलाड़ी आज समोसे बनाकर ठेले पर बेचने के लिए मजबूर है। रीवा की रहने वाली सीता साहू वही होनहार है, जिसे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कभी देश का गौरव बताया था। उसे हर तरह की मदद दिलाने के वादे भी किए थे, लेकिन अधिकांश वादे हवा में ही रह गए। नतीजा ये कि गरीब परिवार की बेटी आज ख़ुद को ठगा सा महसूस करती है।

दरअसल, सीता साहू ने 2011 में ग्रीस में आयोजित स्पेशल ओलंपिक की दौड़ में देश का नाम रौशन करते हुए कांस्य पदक जीता था। उस जीत के बाद उसे काफ़ी बधाइयाँ मिलीं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2013 में यूपीए सरकार के केंद्रीय मंत्री के तौर पर सीता का सम्मान किया और मदद के वादे भी किए। सिंधिया ने सीता को पाँच लाख रुपये की आर्थिक मदद के साथ-साथ रीवा शहर में मकान व दुकान दिलाने और उसके हुनर को निखारने के लिए विशेष ट्रेनिंग का इंतज़ाम करने का वादा भी किया था। इनमें से पांच लाख का चेक तो मिल गया, लेकिन बाक़ी वादे हवा में ही रह गए।

फ़िलहाल हालत ये है कि सीता रीवा शहर के धोबिया टंकी इलाके के कटरा मोहल्ले के बेहद छोटे से घर में रहती है और गुज़ारे के लिए  समोसे बनाने-बेचने का काम करती है। उसकी हालत पर ध्यान देने की फ़ुरसत न तो केंद्र सरकार को है और न ही राज्य सरकार के पास। मीडिया कवरेज की वजह से जो लोग उसे स्थानीय स्तर पर जानने-पहचानने लगे थे, वे भी अब उसे भूल चुके हैं।

18 साल की सीता शहर के ही मूक-बधिर विद्यालय की छात्रा है। 2011 में विद्यालय के प्रिंसिपल ने उसके टैलेंट को पहचानकर स्पेशल ओलंपिक में चयन के लिए भोपाल भेजा था। वहाँ उसका चयन पहले दिल्ली के लिए हुआ और फिर वो ग्रीस जाने वाली टीम के लिए भी चुन ली गई। लेकिन परिवार इतना गरीब है कि उसे ग्रीस भेजने के लिए उसके पिता पुरुषोत्तम साहू को चालीस हज़ार रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा था। बेटी के कांस्य पदक जीतकर आने की उन्हें ख़ुशी तो बहुत हुई लेकिन लंबे अरसे तक किसी ने उसकी सुध नहीं ली। बाद में कुछ लोगों ने सीता के हुनर और उपलब्धियों के बारे में अधिकारियों को बताया तो रीवा के कलेक्टर, कमिश्नर ने दिलचस्पी लेकर उसे दिल्ली भेजा।

2013 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उसका सम्मान करते हुए मदद के लिए कई बड़ी घोषणाएं भी कीं। लेकिन उनमें से 5 लाख के चेक को छोड़कर कोई घोषणा पूरी नहीं हुई। सीता के पिता बताते हैं कि उनकी बेटी अब भी मूक-बधिर विद्यालय तो जाती है, लेकिन उसके लिए न तो ट्रेनिंग की व्यवस्था हुई और न ही वादे के मुताबिक़ दुकान और मकान मिले।

इन अधूरे वादों की क़ीमत सीता साहू के अधूरे सपने चुका रहे हैं। जिस होनहार बेटी को खेल की दुनिया में अपना, अपने प्रदेश और देश का नाम रौशन करना था, उसकी ज़िंदगी अब समोसा बनाने-बेचने और रोज़ी-रोटी की चिंता तक सिमट कर रह गई है।