भोपाल। मध्य प्रदेश की लगभग 70 फीसदी मंडियों में कारोबार लगभग पूरी तरह ठप हो गया है। मंडी से बाहर भी फसलें MSP के मुकाबले लगभग आधे दामों पर बिक रही हैं। इक्का दुक्का मंडियों में अगर कारोबार ठप नहीं हुआ है, तो उसकी वजह वहां हो रही फलों और सब्ज़ियों की आवक है। जानकारों का मानना है कि प्रदेश की मंडियों का ये हाल नए कृषि कानूनों की वजह से हो रहा है। 

मध्य प्रदेश शासन की वेबसाइट ई अनुज्ञा के आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर महीने में राज्य की 269 मंडियों में से लगभग 47 मंडियों में कारोबार पूरी तरह से ठप रहा। वहीं अक्टूबर महीने में ही तकरीबन 143 मंडियों के कारोबार में 50 से 60 फीसदी तक गिरावट देखने को मिली। 

राज्य और केंद्र के कानूनों का बुरा असर सामने देखकर राज्य के लगभग 500 किसान संगठन भी अब कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में उतर आए हैं। इन संगठनों के संयुक्त संघ मोर्चा ने किसान आंदोलन को और तेज करने का फैसला किया है। बता दें कि दिल्ली की सीमा पर 26 नवंबर से ही किसान डटे हुए हैं। मध्य प्रदेश की मंडियों के यह आंकड़े और उनकी यह दयनीय स्थिति इस बात की गवाह है कि आखिर क्यों देश भर के किसान केंद्र के कानूनों को खिलाफ खड़े हैं।

दरअसल केन्द्र के कृषि कानूनों के लागू होने से पहले मई महीने में शिवराज सरकार राज्य में कृषि उपज मंडियों में एमएसपी पर अनाज की खरीद की व्यवस्था को खत्म करने के लिए मॉडल कृषि कानून को लेकर आई। अब इस कानून को लागू हुए 6 महीने के बाद जो आंकड़े सामने आए हैं, वो बेहद चौकाने वाले हैं। 

न्यूज़ पोर्टल न्यूज़ क्लिक ने अपनी एक रिपोर्ट में सरकारी आंकड़ों के हवाले से बताया है कि जिन 47 मंडियों में कारोबार पूरी तरह से ठप हो चुका है, उनमें दस मंडियां ग्वालियर में हैं। इनमें सितंबर में ही काम बंद हो गया था। उधर इंदौर में, सितम्बर महीने में 6 मंडियों में कोई काम नहीं हुआ। जबकि जबलपुर और सिवनी की 6 मंडियों में भी कोई काम नहीं हुआ। अक्टूबर महीने में सागर की 15,  जबलपुर की 14 और रीवा की कुल 9 मंडियों में कोई कारोबार नहीं हुआ। यहां गौर करने वाली बात यह है कि राज्य में 298 उप मंडियों में भी कोई कारोबार नहीं हुआ है।

मंडियों में कारोबार घटने से बोर्ड का टैक्स कलेक्शन भी पिछले साल की तुलना में 64 फीसदी घट गया है। वित्त वर्ष 2019-20 ( 1 अप्रैल 2019  से 31 मार्च, 2020 ) के दौरान बोर्ड का टैक्स कलेक्शन 1200 करोड़ रुपये था। लेकिन छह महीने से यानी जब से अध्यादेश लागू हुआ है, बोर्ड टैक्स से सिर्फ 220 करोड़ ही जुटा सका है। पिछले साल की समान अवधि में जुटाए गए टैक्स का यह 36 फीसदी ही बैठता है। 

मध्यप्रदेश के सात डीवीजन में कुल 269 मंडियां जबकि 298 उप मंडियां हैं। उप मंडियों में केवल सीज़न में ही कारोबार होता है। इन मंडियों में 6500 कर्मचारी काम करते हैं, जिसमें 1500 महिलाएं हैं। जबकि 2500 पेंशनर और लगभग 9000 रिटायर्ड मजदूर भी हैं। लेकिन नए कानूनों ने सबकी कमर तोड़ दी है। मंडियों में काम करने वाले कर्मचारियों कहना है कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों की मिलीभगत ने उन्हें भूखा मार डालने की योजना बनाई है। 

 बता दें कि प्रदेश राज्य मंडी बोर्ड एक स्वायत्त निकाय है। यह निकाय मध्य प्रदेश कृषि मंडी अधिनियम,1972 के तहत बने नियमों पर चलता है। मंडी बोर्ड रजिस्टर्ड व्यापारियों से 1.5 फीसदी टैक्स लेता है। इसमें से वह 0.5 फीसदी राज्य सरकार को देता है। सरकार इस फंड का इस्तेमाल विकास और कल्याणकारी योजनाओं में करती है। बाकी बचे एक फीसदी टैक्स से बोर्ड अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन देता है। इसके साथ ही वह इस पैसे का इस्तेमाल मंडी के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने पर भी खर्च करता है। राज्य में 45 हजार रजिस्टर्ड व्यापारी हैं। 

हाल ही में इस बीजेपी शासित राज्य में सरकार ने कृषि व्यापारियों के दबाव में मंडियों पर लगाया जाने वाला टैक्स 1.5 फीसदी से घटा कर 0.5 फीसदी कर दिया। मंडियों पर यह एक और चोट थी। नए कृषि कानूनों की वजह से ये पहले ही घाटे में चल रही थीं। इस नए कदम ने इनकी हालत और पतली कर दी। नए कृषि कानूनों में बिना किसी लाइसेंस या फीस के प्राइवेट मंडियां खोलने की इजाजत हैं। किसान यहां अपनी फसल बेच सकते हैं।