देश के इतिहास में ये शायद पहला मौका होगा जब राष्ट्र दिवालिया होने की कगार पर पहुंचकर दीवाली मनाएगा…  5 अप्रैल को जब देश अपने दरवाज़ों पर खड़े होकर प्रकाश पर्व मना रहा होगा तो राष्ट्र लक्ष्मी कहीं कोने में रो रही होंगी। यकीन ना हो तो दुर्दशा के कुछ उदाहरण अर्थव्यवस्था के मौजूदा आईने में जरूर देखें।

हालांकि, लक्षण तो पहले से ही दिख रहे थे लेकिन ठीक उसी वक्त का जिक्र करें जब प्रधानमंत्री अंधेरे से उजाले की ओर जाने का आह्वान कर रहे थे, सेंसेक्स निराशा के समुद्र में गोते लगा रहा था, भारतीय मुद्रा मायूसी के आंसू रो रही थी और दुनियाभर की तमाम रेटिंग एजेंसियां हमारे ग्रोथ के गीत को फीका कर रही थीं।

दुनिया की मशहूर रेटिंग एजेंसी फिच दावा कर रही है कि भारत की आर्थिक विकास दर 30 साल पीछे जा सकती है। मूडी, फिच, आईसीआरए रिसर्च जैसे तमाम रेटिंग एजेंसियों ने इस साल के फाइनांशियल इयर में विकासदर के अनुमान को घटाकर 2 फीसदी कर दिया है। बाजार में हाहाकार मचा हुआ है। भारतीय शेयर बाजा़र बीते कुछ दिनों में लगभग साढ़े 3 लाख करोड़ रूपया गंवा चुका है। 16 जनवरी को 42059 का आंकड़ा छू रहा बाजार 3 अप्रैल को 27590 पर पहुंच गया। यानी ढ़ाई महीने में लगबग 15000 प्वाइंट्स की गिरावट। रूपया भी अपने बुरे दिनों का रोना रो रहा है। दुनिया के बाजार में भारतीय मुद्रा की कीमत गिरकर डॉलर के मुकाबले 76.11 रूपये रह गई है। स्थिति संभालने के लिए रिजर्व बैंक को दखल देना पड़ा है। विश्वगुरू बनने का दावा करनेवाले हम वर्ल्ड बैंक से कर्ज ले रहे हैं। कोरोना से लड़ने के लिए भारत ने वर्ल्ड बैंक से 1 बिलियन डॉलर यानी 7600 करोड़ रूपये का लोन लिया है।

आर्थिक अखबार घबराहट के संकेत दे रहे हैं। कोरोना ने दुनिया के साथ साथ भारत को भी बैकफुट पर ला दिया है। लेकिन इसके लिए बिना तैयारी भारत सरकार के फैसले पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। पहले एयरलाइंस उद्योग का कर्मचारियों को जबरन छुट्टी पर भेजना फिर उनकी सैलरी काटना। फिर ऑटो सेक्टर का औंधे मुंह गिरना। और मार्च महीने में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ का चार महीने पीछे चला जाना… यही नहीं,  IT Sector में भी 2.7 फीसदी की रेवेन्यू गिरावट का अनुमान। इन सारी नकारात्मकताओं का असर नौकरियों पर पड़ रहा है। CMIE का कहना है कि मार्च के महीने में बेरोजगारी दर बढ़कर 43 महीने के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई है। जो इस वक्त 9 फीसदी दर्ज की जा रही है।

जाहिर है, अलग अलग प्रदेशों से रोजगार की तलाश में महानगरों का रुख करनेवाले लोग अब निराश होकर वापस घर लौट रहे हैं। लेकिन अफसोस कि राज्यों के पास भी उन्हें देने या उनकी देखभाल के लिए बजट की कमी है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने अपने बकाया जीएसटी कलेक्शन की मांग केंद्र सरकार से की है, जो उन्हें नहीं दिया गया है। मनरेगा आदि जैसे जीवनरक्षक रोजगार-परक योजनाओं का लाभ देने में भी सरकारें असमर्थ हैं। बुरे हाल का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सोशल सेक्टर पर खर्च करने के लिए सरकारों के पास पैसा नहीं है। यहां तक कि सरकारी स्कूलों में मिलने वाले मिड डे मील यानी दोपहर के भोजन को भी बंद कर दिया गया है। गरीब बस्तियों में अनाज वितरण सामाजिक राजनीतिक संस्थाओं के भरोसे चल रहा है। सरकारी योजनाओं का फायदा उन्हें नहीं मिल पा रहा जो राशन कार्ड या गरीबी रेखा वाले कार्ड से वंचित हैं।

अर्थव्यवस्था में मील का पत्थर साबित होनेवाला कृषि क्षेत्र अपनी बेखुदी में जीने को मजबूर है। जब सारे मानक औंधे मुंह गिरे हैं किसी को फिक्र नहीं है कि ये सीजन रबी की फसल की कटाई और खरीद बिक्री का है। सरकारें अगर किसान हितैषी होतीं तो इस मौके पर उन्हें अपने हाल पर ना छोड़तीं। तालाबंदी ने किसानों की उम्मीदों पर भी ताला लगा दिया है। सब्जियां और दूध की बर्बादी तो आम हो रही है। लेकिन कहीं कहीं होर्डिंग और कालाबाजारी ने भी पैर पसारना शुरू कर दिया है।

कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की बुनियाद हिल रही है और हम ग्रह-नक्षत्र/ टोने-टोटके से कोरोना से युद्ध कर रहे हैं। समाज से शिकायत नहीं पर सरकार चलाने वाले लोग ही अगर इस कदर अंधविश्वास को बढावा देंगे तो बर्बादी की जिम्मेदारी कौन लेगा…? इस अंधेरे वक्त में अवसाद इसलिए नहीं कि लोग लॉकडाउन में हैं बल्कि इसलिए बढ़ रहा है कि उनके सपने मर रहे हैं। 5 अप्रैल को जब दीपक, मोमबत्ती जलाएं तो जनता अपने मन और ज्ञान का भी उजाला करे, समझे कि सिर्फ अच्छे कर्म ही सितारे बदल सकते हैं, वरना हम अपनी बेचारगी पर लकीर पीटते रह जाएंगे और ताली थाली का हासिल कुछ ना होगा। हमें समझना होगा कि भारत ने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि की वजह से दुनिया में जगह बनाई और लोहा मनवाया। अगर हमने इसे गंवा दिया तो दुनिया आगे और हम सैकड़ों साल पीछे चले जाएँगे।