सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को फैसला सुनाया कि लिंग के आधार पर आदिवासी महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना असंवैधानिक है। फैसले में कहा गया है किसी आदिवासी महिला या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करना अनुचित और असंवैधानिक दोनों है। इस फैसले ने आदिवासी समुदायों में महिलाओं के समान उत्तराधिकार अधिकारों की पुष्टि की है। 

इस फैसले ने लंबे समय से चली आ रही धारणा को पलट दिया कि ऐसे अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले रीति-रिवाजों को तब तक अस्तित्व में माना जाना चाहिए जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।हालांकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (एचएसए), 1956 अनुसूचित जनजातियों (एसटी) पर लागू नहीं होता, फिर भी अदालत ने स्पष्ट किया कि इस अपवाद का यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता है कि आदिवासी महिलाएं पैतृक संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं हैं। अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जब तक कोई विशिष्ट प्रथागत प्रतिबंध सिद्ध न हो जाए, समानता कायम रहनी चाहिए।

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह फैसला छत्तीसगढ़ की एक अनुसूचित जनजाति की महिला के कानूनी उत्तराधिकारियों से जुड़े एक मामले में सुनाया, जिसने अपने नाना की संपत्ति में हिस्सा मांगा था। उनके दावे का परिवार के पुरुष सदस्यों ने विरोध किया और तर्क दिया कि आदिवासी रीति-रिवाज महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करते हैं। जबकि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और नीचली आदालतों से याचिका खारिज कर दिया गया था। इस फैसले ने आदिवासी समुदायों में महिलाओं के समान उत्तराधिकार अधिकारों की पुष्टि की है। इस फैसले ने लंबे समय से चली आ रही धारणा को पलट दिया है कि ऐसे अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले रीति-रिवाजों को तब तक अस्तित्व में माना जाना चाहिए जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए।

हाईकोर्ट और निचली अदालतों के निष्कर्षों को पलटते हुए, उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों के दृष्टिकोण की आलोचना की, जिसमें महिलाओं को उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की आवश्यकता बताई गई थी। पीठ ने कहा कि महिलाओं, जिनमें मुकदमे में शामिल महिलाएं भी शामिल हैं, को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण दोनों है। न्यायालय ने आगे कहा कि ज़िम्मेदारी किसी भी मौजूदा प्रथा को साबित करने की है जो पैतृक संपत्ति पर उनके अधिकार को प्रतिबंधित करती है।

पीठ ने पहले के फैसलों को खारिज करते हुए कहा कि हमारा दृढ़ मत है कि "न्याय, समानता और अच्छे विवेक के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, संविधान के अनुच्छेद 14 के व्यापक प्रभाव के साथ, अपीलकर्ता-वादी, संपत्ति में अपने समान हिस्से के हकदार हैं।" संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के सामने समानता की गारंटी देता है, जबकि अनुच्छेद 15 धर्म,जाति, लिंग, नस्ल और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है।

यह फैसला व्यापक महत्व रखता है क्योंकि यह आदिवासी समुदायों में लैंगिक न्याय के बारे में चल रही बहस पर पुनर्विचार करता है और उसे और पुष्ट करता है, खासकर संहिताबद्ध व्यक्तिगत कानूनों के अभाव में। हालांकि एचएसए, धारा 2(2) के तहत, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को इसके दायरे से स्पष्ट रूप से बाहर रखता है, जब तक कि केंद्र सरकार अन्यथा अधिसूचित न करे, सर्वोच्च न्यायालय ने अब स्पष्ट किया है कि इस तरह की वैधानिक चुप्पी संस्थागत असमानता का आधार नहीं बन सकती।

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने 2022 में कमला नेती बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी के केस में आदिवासी महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को लेकर एक अहम फैसला सुनाया। उन्होंने केंद्र सरकार से आग्रह किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में आवश्यक संशोधन करके आदिवासी महिलाओं को भी संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के इस मत से यह स्पष्ट है कि कोर्ट आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के बराबर संपत्ति पर अधिकार देना चाहता है।

ज्ञात हो कि दिसंबर 2024 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को समान उत्तराधिकार का अधिकार देने से परहेज किया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर टिप्पणी देते हुए भारत जन आंदोलन के विजय भाई ने कहा कि परम्परा एवं मौलिक अधिकार (संविधान का मूल ढांचा तत्व) के बीच को व्याख्या करते हुए न्यायमूर्ति ने मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी है। 

यह भी समझना होगा कि कोई भी परम्परा मौलिक अधिकार के विरुद्ध जाता है तो वो परम्परा खारिज हो जाता है। इसलिए आदिवासी परम्परा की जब भी बात करेंगे तो हमारी समतामूलक और सामूहिकता तत्वों के साथ - साथ सबसे पहले " प्रत्यक्ष लोकतंत्र" को ही प्रधानता देना होगा। आदिवासी समुदाय पर संविधान द्वारा प्रदत अनुच्छेद 13 की दुहाई देते हुए रूढ़ी प्रथा के नाम पर अपनी महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक आज़ादी का हनन करने का आरोप भी लगता रहा है। जबकि आदिवासी समुदाय में दूसरे समुदायों से ज्यादा खुलापन है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह निर्णय, व्याप्त अंधकार में एक किरण की तरह उभरता है, जो आदिवासी समुदाय में हलचल पैदा करेगा।

(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)