इंडियन एक्सप्रेस के 16 अगस्त के अंक के संपादकीय पृष्ठ पर ई पी उन्नी का एक रेखाचित्र छपा है, जिसमें रवींद्रनाथ टैगौर कलम-दवात से लिखते हुए कह रहे हैं, “पड़ौसी के लिए कोई राष्ट्रगान नहीं, काबुलीवाला के लिए प्रार्थना लिख रहा हूँ।“  रवींद्रबाबू ने सन् 1892 ई. में यह कहानी लिखी थी। यानी करीब 140 वर्ष पहले। तो इन वषों में क्या वह नरमदिल काबुलीवाला तालिबानी हो गया है? अथाह प्रेम में रहने वाले और उतनी ही दुस्साहसी कौम का क्या इतना पतन हो सकता है? दो अतियों पर जीने वाले अफगानी इतने क्रूर कैसे बन गए? यह वैश्विक चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि तालिबान का विस्तार सिर्फ अफगानिस्तान में नहीं हो रहा है, हर देश में हो रहा है। उस देश के प्रत्येक प्रांत में हो रहा है। उस प्रांत के प्रत्येक जिले में हो रहा है। उस जिले के प्रत्येक शहर, नगर व गांव में हो रहा है। उस शहर, नगर व गांव के प्रत्येक मोहल्ले में हो रहा है और अपवाद छोड़ दें तो मोहल्ले के तकरीबन सभी घरों में तालिबान विस्तारित हो रहा है। बिना विचलित और नाराज हुए स्वयं को, अपने पड़ोसी को, अपने मोहल्ले को, अपने शहर को, अपने जिले को, अपने प्रांत को, अपने देश को और इस विश्व को नजरें उठाकर सहिष्णुता से देखिए, आपको दिखने लगेगा कि तालिबान अब कोई व्यक्ति और संस्था भर नहीं, यह एक विचार तक भी सीमित नहीं है, बल्कि एक प्रवृत्ति बनता जा रहा है। यह बेहद खौफनाफ मंजर है।

अफगानिस्तान के काबुल हवाई-अड्डे और नजदीकी होटल के सामने हुए बम विस्फोटों में करीब 100 अमेरिकी व अफगानी नागरिकों व सैनिको की दर्दनाक मृत्यु हो गई है। यह कैसे हुआ से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इस बात पर विचार किया जाए कि ऐसा क्यों हुआ? क्या इस स्थिति के लिए स्वयं अमेरिका, उसके मित्र देश और उनके द्वारा स्थापित कठपुतली सरकार जिम्मेदार नहीं है? अपने ही नागरिकों को शरणार्थी बना देने का क्या अर्थ है? इस कांड पर अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की प्रतिक्रिया बेहद हताशा भरी और कमोवेश तालिबानी प्रवृत्ति का ही प्रतिनिधित्व करती नजर आती है। वे कह रहे हैं, ‘‘हम माफ नहीं करेंगे, भूलेंगे नहीं, चुन-चुन कर तुम्हारा शिकार करेंगे। आपको इसका अंजाम भुगतना होगा। निश्चित ही यह एक राष्ट्रप्रमुख की भाषा नहीं है। क्या मनुष्य अब दूसरे मनुष्य का शिकार करेगा? एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य को मारना, क्या अब हत्या नहीं शिकार कहलाएगा? बहुत से लोगों की बाइडेन की शब्दावली से सहमति भी होगी। वैसे अमेरिका ने तो कई शताब्दियों तक वहां के मूल निवासियों, रेड इंडियन का शब्दशः शिकार ही किया है। वहां पर कुल 574 जनजातियां थीं। उन्होंने सैकड़ों हजारों निहत्थे, मूल निवासियों के शिकार का जश्न मनाया है। 29 दिसंबर 1890 को अमेरिका की राज्य सेना ने दक्षिणी डकोटा में लकोटा जनजाति के एक बहरे व्यक्ति द्वारा अपनी राइफल न देने पर जो कि उसने स्वयं खरीदी थी, से नाराज होकर उस समुदाय पर गोली चला दी जिससे करीब 300 लोग मारे गए थे, ऐसा अमेरिका के गोरे समुदाय ने कई दशकों तक किया है। इसे बैटल आफ वुंडेड नी या वुडेड नी हत्याकांड भी कहा जाता है। अमेरिका में मूल निवासियों का आखेट हुआ है, शिकार किया गया है। प्रतीत होता है कि इसीलिए राष्ट्रपति के अवचेतन में कहीं न कहीं उस निर्ममता की स्वीकार्यता बनी हुई है। इसी वजह से यह वक्तव्य सामने आया है। युद्ध को युद्ध के तरीके से ही लड़ा जाए, वह भी यदि आवश्यक हो तो। यदि इसे प्रतिहिंसा और असीम घृणा से लड़ा जाएगा तो वह भी एक तरह आतंकवाद ही होगा।

ब्रिटिश लेखक नेंसी लिंडिस्फ्रान व जोनाथन नीअली का विस्तृत आलेख ‘‘अफगानिस्तान: आधिपत्य का अंत’’ (अफगानिस्तान: दि एण्ड आफ दि ऑक्यूपेशन) कई महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने रखता है और तमाम वास्तविकताएं भी इस लेख से उभर कर आती हैं। लेखिका का दशकों तक अफगानिस्तान में आना जाना रहा है। उनका मानना है कि, ‘‘ब्रिटेन और अमेरिका की मीडिया में अफगानिस्तान को लेकर बहुत सी बकवास लिखी जा रही है। साथ ही निम्न तीन तथ्यों को छुपाया भी जा रहा है।

पहला है, तालिबान ने अमेरिका को हरा दिया है, दूसरा तालिबान इसलिए जीता है क्योंकि वह वहां अधिक लोकप्रिय है और तीसरा तथ्य है, इसलिए नहीं कि अधिकांश अफगानी तालिबान से प्यार करते हैं बल्कि इसलिए क्योंकि अमेरिकी आधिपत्य असहनीय स्तर तक क्रूर और भ्रष्ट था।’’ उनका मानना है कि यह तालिबान की सैन्य विजय हुई है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिकी सैनिकों ने अफगानी नागरिकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया है। तालिबान लड़ाकों की खोज में उन्होंने ग्रामीणों को इतना तंग किया कि पुरुष गांव से भाग जाते थे और अमेरिकी सिपाही वहां की महिलाओं से अत्यधिक सख्ती से पेश आते थे। साथ ही यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिकी प्रशासन ने तालिबान के आय के स्त्रोत-अफीम की अवैध खेती को नष्ट नहीं किया। ऐसा क्यों? युद्ध में सबसे पहले सामने वाले पक्ष का आर्थिक आधार ही तो नष्ट किया जाता है। अफीम का वैध व्यापार उन्होंने अफगानिस्तान सरकार के अधीन क्यों नहीं कराया? सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विगत बीस वर्षों में अमेरिका न तो वहां शांति स्थापित कर पाया और न ही उसने वहां सामाजिक सुधार, कृषि, स्वास्थ्य आदि विषयों पर कोई अधिक कार्य किया। इतना ही नहीं उसने तालिबान के विरोधी समूहों से भी कभी कोई संवाद नहीं किया। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अमेरिका ने कमोवेश वे सभी गलतियां यहां भी दोहराई जो उसने वियतनाम में की थीं। वैसे अफगानी अमेरिका के 20 वर्षों के आधिपत्य को इसलिए भी याद रखेंगे क्योंकि इन दो दशकों में वहां जितनी असमानता बढ़ी है, उतनी पहले कभी नहीं थी।

वहीं दूसरी ओर यदि तालिबान के नेतृत्व पर निगाह डालें तो बड़ी रोचक बात सामने आती है | गौरतलब है, तालिबान का नेतृत्व बारह पुरुष करते हैं। उन सभी ने सोवियत संघ से हुए युद्ध में अपना एक हाथ, एक पैर या एक आँख को खोया है। यह तथ्य वहां प्रचारित भी है और इसने अफगानी नागरिकों को तालिबान की ओर मोड़ा भी है। अमेरिका ने संभवतः तालिबानी क्रूरता को दबाने का प्रयास उससे भी अधिक क्रूरता से करने का प्रण ले रखा था और उसने ऐसा किया भी। इसी के साथ अमेरिका के प्रयास अधिकांशतः बड़े शहरों तक सीमित रहे। अमेरिकी प्रभुत्व के चलते भारत जैसे देशों के विकास कार्यों को बहुत अहमियत भी नहीं मिल पाई।

गांधी जी कहते हैं, ‘‘अहिंसा तो प्रेम है। वह मौन और करीब-करीब गुप्त रूप से अपना असर पैदा करती है। मित्रों और संबंधियों के बीच प्रेम कोई करिश्मा नहीं होता। वे एक दूसरे को स्वार्थवश प्यार करते हैं, प्रबुद्धता के आधार पर नहीं। वह तो तथाकथित विरोधियों के बीच ही अपना करिश्मा दिखाता है। इसलिए जरुरत इस बात की है कि आदमी जितनी भी दयालुता और दानवीरता दिखा सकता है वह सारी की सारी अपने विरोधी या आतातायी पर दिखाए।’’ परंतु आज तो इसका ठीक उलट ही हो रहा है। सभी देश दूसरे देशों के ही नहीं अपने नागरिकों के प्रति भी बेहद आक्रोश से भरे हैं। अफगानिस्तान संकट के समय भी मेरा-तेरा की भावना से ऊपर नहीं उठ पाए। हमारी मानवता के प्रति जिम्मेदारी कमोवेश शून्य हो गई है। हम स्वयं से ही डर रहे हैं। इसीलिए संकट के समय मदद के लिए हमें केवल अपने ही याद आते हैं। हमें उनकी ही मदद करना होती है। कम से कम भारतीयों को तो याद रहना चाहिए कि हमने सन् 1971 में बांग्लादेश संकट के समय 1 करोड़ शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी थी। इतना नहीं जो करीब 95 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदी थे, उनके साथ हमारे देश ने जो व्यवहार किया उसकी तारीफ आज भी सारी दुनिया में होती है। परंतु पिछले दिनों हमने म्यांमार से शरणार्थी बनकर आए रोहिंग्याओं को शरण नहीं दी। हाल ही में एक अफगानी राजनयिक को अपने देश में प्रवेश नहीं करने दिया। इससे क्या सिद्ध होता है? क्या हमने तालिबान को मान्यता प्रदान कर दी है? जबकि ऐसा नहीं है। हाँ यह अलग बात है कि अभी तक आधिकारिक तौर पर उनकी आलोचना भी नहीं की है। अफगानिस्तान के नागरिक भी दूसरे देशों में शरण के लिए भटक रहे हैं। वहीं सोचने वाली बात यह है कि अफगानी हिन्दू व सिखों का एक बड़ा वर्ग भारत में शरण नहीं लेना चाहता। वह कनाडा या अमेरिका में शरण लेना चाहता है। जबकि भारत ने वहां के इन संप्रदायों के लोगों के लिए विशेष रूप से नागरिकता नियमों में बदलाव किया था।

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘मैं अब भोग भूमि से कर्म भूमि में जा रहा हूँ। मेरी मुक्ति भारत को छोड़कर अन्य भूमि में नहीं है। यदि मोक्ष की इच्छा है तो मनुष्य को भारत की भूमि पर आना चाहिए। मेरी ही तरह भारत भूमि दुखियों का विश्राम स्थल है।’’ परंतु आज हम और हमारी सरकार इस भावना से कार्य नहीं करना चाह रहे हैं। अफगानिस्तान पर अमेरिकी आधिपत्य की पूर्ण समाप्ति के पहले ही वहां तालिबान का आधिपत्य हो गया है। तालिबान तब तक वैध शासक होने का दावा नहीं कर सकता जब तक कि सत्तासीन होने का कोई लोकतांत्रिक जरिया न हो। अमेरिका, भारत, चीन, पाकिस्तान या अन्य देशों की सहमति भले ही उसके साथ हो जाए लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि घरेलू मसलों पर बाहरी या अंतराष्ट्रीय नहीं बल्कि घरेलू लोकतांत्रिक पद्धति को ही आधार बनाना होगा। इसके लिए जरुरी है कि पूरी आबादी जिसमें 50 प्रतिशत महिलाएं हैं, को बराबरी का हक मिले। अफगानिस्तान से आ रहे चित्रों पर गौर करने से पता चलता है कि देश छोड़कर जाने वाले अधिकांश अफगानी पुरुष हैं। ऐसे में वहां रह रहीं महिलाओं का क्या होगा ?

आवश्यकता इस बात की है कि एक ऐसे विश्व के निर्माण की ओर बढ़ा जाए जिसमें ताकत का कम से कम प्रयोग हो | लोकतांत्रिक राष्ट्र लोकतांत्रिक तरीके से अपना व्यवहार विकसित कर पाएं। अन्यथा अब ज्यादा समय नहीं बचा है, जब अफगानिस्तान का वर्तमान अंधिकांश दुनिया का वर्तमान बन जाएगा। अफगानी नागरिकों में मची अफरातफरी देखकर गालिब का यह शेर याद आता है,

कितना खौफ होता है, शाम के अंधेरों से। पूछ उन परिंदो से, जिनके घर नहीं होते।।

 

(गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्रा का यह स्वतंत्र विचार है)