भोपाल। मध्यप्रदेश का टूरिज्म विभाग वोकल फॉर लोकल की तर्ज पर प्रदेश में बनी चीजों को प्रमोट कर रहा है। इसी कड़ी में मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में फेमस बाग प्रिंट को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूं तो बाग किसी परिचय का मोहताज नहीं है, बावजूद इसके इसे और ज्यादा लोकप्रिय बनाने की कवायद की जा रही है। बाग एक पारंपरिक कला है।

बाग प्रिंट में प्राकृतिक रंगों के साथ ब्लॉक प्रिंटिंग का उपयोग होता है। माना जाता है कि यह पुरानी परंपरा मध्य प्रदेश के धार जिले के बाग गांव से शुरू हुई थी। इसी के नाम पर इसे बाग प्रिंट का नाम पड़ा। बाग की मूल तकनीक को बरकरार रखते हुए, इस प्रिंट में मुख्य रूप से फूल पत्तियों और ज्योमेट्रिकल पैटर्न शामिल होते हैं। चटख और पक्के रंगों का उपयोग होता है।

इनदिनों बाग प्रिंट का उपयोग साड़ियों के साथ बेड शीट, टेबल कवर, कुशन कवर, पर्दे, फाइल कवर पर इस्तेमाल हो रहा है। ये डिजाइन्स एक से बढ़कर एक हैं। जो पहली ही नजर में पसंद आ जाती है।

माना जाता है कि इंदौर संभाग के धार जिले के छोटे से गांव बाग से बाग प्रिंट की कला को एक परिवार ने शुरू किया था। जो आज भी चली आ रही है। इस कला में बाग इलाके के प्रॉकृतिक नजारे, नदियां, पेड़ पौधे, और  वन्य जीवन का असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। यह देखने में काफू खूबसूरत लगता है। इसे बनाने में काफी वक्त और मेहनत लगती है। कलाकारों की मानें तो एक साड़ी या दुपट्टा तैयार करने में 15 से 20 दिन तक लग जाते हैं। 

कारीगर हाथों से करते हैं छपाई

बाग कारीगर कपड़ों पर इसकी छपाई अपने हाथों से करते हैं। इसके लिए कपड़ों को बार-बार धोया जाता है, फिर कलर किया जाता है, और फिर उस पर प्रिंटिंग की जाती है। इसे तैयार करने के लिए कपड़ों को पूरी रात पानी में डुबोकर रखा जाता है। फिर धूप में सुखाते हैं। कहा जाता है कि इन कपड़ों को जिस पानी में भिगोया जाता है उसमें अरंडी के तेल, समुद्री नमक डाला जाता है। रात भर कपड़ों को भीगने के बाद इसे साफ पानी से धोया जाता है। इस  प्रोसेस को 3-4 बार रिपीट किया जाता है। सबसे आखिर में कपड़ों को कलर किया जाता है।

प्रिंटिंग में होता है नेचुरल कलर का उपयोग

कपड़ों पर बाग प्रिंट करने के लिए नेचुरल कलर्स का उपयोग किया जाता है। ये रंग फूलों, फलों और बीजों तैयार किए जाते हैं। लाल रंग बनाने के लिए फिटकरी और इमली के बीजों का उपयोग होता है। इमली के बीज, अनार और फिटकिरी को उबालकर रेड कलर मिलता है। काला रंग बनाने के लिए लोहा, गुड़ और पानी के मिक्स उपयोग किया जाता है। वहीं पीले रंग के लिए हरड़ और बाहेड़ा के पाउडर के पानी में कपड़े को डाला जाता है। करीब 15 दिन सुखाने के बाद धवड़ी फूल और पेड़ों की जड़ों के साथ तांबे के बड़े बर्तनों में तीन घंटे तक उबाला जाता है। ताकि कपड़े का एक-एक रेशा पेस्ट वाला पानी सोख ले।

 

 महीनों की मेहनत से तैयार होते हैं रंग

एक-एक रंग महीनों की मेहनत से तैयार होता है। कहा जाता है कि अगर आप असली और नकली की पहचान करना चाहते हैं तो असली बाग प्रिंट की पहचान है कि उसमें कुछ कमियां दिखाई देती हैं, उनमें फिनिशिंग थोड़ी कम नजर आती है। वहीं परफेक्ट प्रिंटिंग है तो वह हाथ से नहीं मशीन से की गई होगी।

कॉटन के साथ सिल्क पर भी होती है प्रिंटिंग

बाग प्रिंट में उपयोग आने वाले लकड़ी के ब्लॉक भी काफी मेहनत से तैयार होते हैं। इस्माइल सुलेमान खत्री को बाग प्रिंट का जनक कहा जाता है। इनकी तीन पीढ़ियां इसी काम में लगी हैं। बाग गांव के पुस्तैनी कारीगरों के पास 300 साल से भी पुराने ब्लाक मौजूद हैं। हैं। इन ब्लॉक्स पर उकेरे डिजाइन में वन्यजीव, प्रकृति, प्राचीन बाघ गुफा के चित्र और वास्तुकला के दर्शन होते हैं। यह बाग प्रिंट सूती, रेशमी, टसर, कॉटन-सिल्क, जूट और क्रेप के साथ दूसरे अन्य कपड़ों पर किया जा सकता है। बाग प्रिंट के कपड़ों के साड़ी, सूट, चादर के साथ-साथ नए पैटर्न के डिजाइर और मार्डन ड्रेसेस भी बनाई जाती हैं। आज बाग प्रिंट को दुनियाभर में पहचान मिल चुकी है और लोग इसे काफी पसंद करते हैं। यही वजह है कि पर्यटन विभाग इसे प्रदेश के साथ दुनिया में शो केस कर रहा है।