हमारे शास्त्रों में पुरुषार्थ चतुष्टय को सुख का साधन माना गया है।अर्थ, धर्म, काम,मोक्ष। इनमें प्रथम तीन सुख के साधन हैं और चतुर्थ मोक्ष स्वयं सुख स्वरूप ही है। पुरुषार्थ का अर्थ है पुरुष का प्रयोजन। पुरुष की प्रत्येक चेष्टाओं के मूल में समस्त दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति की इच्छा ही उसका प्रयोजन है।इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्रत्येक मनुष्य इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के लिए प्रयत्नशील रहता है। ये प्रवृत्ति पशु पक्षियों में भी देखी जाती है।

आज का मानव पाशविक प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहा है। मुख्य रूप से जो विषय इन्द्रिय संयोग से मन को प्रिय लगते हैं, उनको इष्ट समझकर हम उनको प्राप्त करना चाहते हैं पर उनका अतिरेक हमें अधर्म की ओर खींच लेता है जबकि कुछ विचारक अपने अतिरेक के दुष्परिणाम को देखकर स्वयं को आत्मनियंत्रित करने में ही कल्याण मानते हैं। इन दो प्रवृत्तियों को ही असुर और देव कहा गया है। असुर का अर्थ-असु अर्थात् प्राण और प्राणों से अनुप्राणित इन्द्रियों में जो रमते हैं,वे असुर हैं। जो संयम सदाचार से स्वयं को श्रेयस्कर मार्ग की ओर ले जाते हैं, वे देव हैं। यह देवासुर संग्राम सभी के हृदय में चल रहा है। हमारे पुराणों में इन्हीं दो प्रवृत्तियों के परस्पर के संघर्ष को देवासुर संग्राम के रूप में दिखलाया गया है।

हमारे उपनिषदों में शरीर की उपमा रथ से दी गई है। कहा गया है कि-आत्मा रथी है,शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है,मन लगाम है,इन्द्रियां घोड़े हैं और विषय उनके भ्रमण का क्षेत्र है।इस रूपक में कहा गया है-जिस रथ का बुद्धि रुपी सारथी सजग होता है,वह मन की लगाम से इन्द्रियरूपी घोड़ों को नियंत्रित करके रथ को पतनोन्मुख होने से बचाता है। जबकि जिसका विज्ञान सारथी प्रमत्त होता है, उसके इन्द्रियरूपी घोड़े उसे पतन के गर्त में गिरा देते हैं।जब कोई जिज्ञासु अपने आप को पतन से बचाना चाहता है तो कभी-कभी उसको अन्तर्द्वन्दों का सामना करना पड़ता है। दूषित संस्कार और राग-द्वेष उसे एक ओर खींचते हैं, और दूसरी ओर उसके गुरु और शास्त्र की शिक्षा के संस्कार उनसे बचने के लिए प्रेरित करते हैं।

मनुष्य के अन्त:करण में सत्व,रज,तम ये तीन गुण आते जाते रहते हैं। रजोगुण और तमोगुण कुमार्ग की ओर खींचते हैं जबकि सत्व गुण उसे कुमार्ग की ओर से बाहर खींचता है। पाशविकता प्रथम और स्वाभाविक है, और संस्कारित भावनाएं पीछे आती हैं। इसलिए असुर बड़े भाई हैं और देवता छोटे भाई हैं।

आज भारत को इसी संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है। आधुनिकता का प्रबल बवंडर भारतीयों के समस्त आचार, विचार, रहन,सहन और सोचने की प्रणाली को प्रभावित कर रहा है। कुछ लोगों को तो अपने धर्म और संस्कृति को लेकर लज्जा का अनुभव हो रहा है,वे इसकी गरिमा को भूल रहे हैं। किन्तु कोई बात नहीं है। जबसे मानव जाति ने जन्म लिया है तबसे यह संघर्ष चल ही रहा है। कोई समय था जब भारत जगद्गुरु हुआ करता था। आज लम्बी परतंत्रता और कुशिक्षा के कारण वह निर्बल होता जा रहा है। किन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जगत् की पालनी शक्ति जिसे हम परमात्मा, भगवान और भगवती के रूप में जानते हैं,वह आज भी हमारी रक्षा सुदर्शन चक्र के द्वारा अहर्निश जागृत रहते हुए कर रही है।