कोलंबो। भारतीय महिला ब्लाइंड क्रिकेट टीम ने इतिहास रच दिया है। कोलंबो में खेले गए पहले ब्लाइंड महिला टी20 वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत ने नेपाल को सात विकेट से हराकर पहली बार वर्ल्ड चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया। यह जीत सिर्फ ट्रॉफी की नहीं बल्कि उन आंखों की है जिन्होंने देखे बिना सपनों पर भरोसा किया है।

खिताबी जंग में भारत ने टॉस जीतकर नेपाल को पहले बल्लेबाजी करने भेजा था। इस दौरान नेपाल ने 20 ओवर में 5 विकेट के नुकसान पर 114 रन बनाए थे। जवाब में भारतीय टीम ने लक्ष्य को केवल 12.1 ओवर में ही पूरा कर लिया और 47 गेंदें शेष रहते जीत दर्ज कर ली। भारत की ओपनर खुला शरिर ने 27 गेंदों पर चार चौकों की मदद से नाबाद 44 रन बनाकर मैच को एकतरफा कर दिया था। इस टूर्नामेंट की सबसे खूबसूरत बात यह रही कि भारतीय टीम ने एक भी मैच नहीं हारा। उन्होंने हर मुकाबले में दबदबा दिखाते हुए चैंपियन बनने तक लगातार जीत का सिलसिला कायम रखा।

लगभग 20 दिन पहले नवी मुंबई में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका को हराकर क्रिकेट के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय जोड़ा था। अब ठीक तीन हफ्तों के भीतर भारतीय महिला ब्लाइंड क्रिकेट टीम ने भी वर्ल्ड कप अपने नाम कर देश को दोहरी खुशी दी है।

पहले वर्ल्ड कप में भारत सहित छह देश ने हिसालिया था। इनमें नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका शामिल हैं। दिल्ली से शुरुआत कर बेंगलुरु होकर यह टूर्नामेंट कोलंबो में नॉकआउट मुकाबलों के साथ समाप्त हुआ। भारत की 16 सदस्यीय टीम नौ राज्यों, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, दिल्ली, असम और बिहार का प्रतिनिधित्व करती है। इन खिलाड़ियों की यात्रा गांवों, छोटे कस्बों और सीमित संसाधनों से शुरू हुई थी जहां खेल से ज्यादा जिंदगी से लड़ाई थी।

टीम की कप्तान दीपिका टीसी कर्नाटक की हैं। बचपन में एक दुर्घटना में दृष्टि खोने के बाद उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि क्रिकेट उनका जीवन बदल देगा। विशेष स्कूल में मिली प्रेरणा ने संकोच को आत्मविश्वास में बदल दिया था। अब वह अपने करियर के सबसे बड़े मुकाम पर हैं। वह बार-बार यही कहती हैं कि यह जीत हम सबकी पहचान है। भारतीय टीम को महिला वर्ल्ड कप विजेता जेमिमा रोड्रिग्स और पुरुष टीम के कप्तान शुभमन गिल का समर्थन मिला था जो खिलाड़ियों के लिए बेहद प्रेरक साबित हुआ। 

वाइस-कैप्टन गंगा कदम महाराष्ट्र की हैं। नौ भाई-बहनों वाले किसान परिवार से आने वाली गंगा के पिता ने उन्हें ब्लाइंड स्कूल में इसलिए भेजा था कि उनकी एक स्थिर जिंदगी बन सके। खेल उनकी किस्मत में बाद में आया पर जब आया तो ठहर गया। आवाज पहचानना, गेंद का अंदाजा लगाना सब कुछ उन्हें समय और जिद ने सिखाया।

जम्मू-कश्मीर की अनखा देवी शुरू से आंशिक रूप से दृष्टिबाधित थीं। उनके चाचा ने उन्हें दिल्ली के एक ब्लाइंड क्रिकेट कैंप में भेज दिया था। शुरुआत में आवाजों का शोर और मैदान की अनिश्चितता भारी लगती थी लेकिन उन्होंने जल्दी ही खेल को समझ लिया और सिर्फ दो साल में राष्ट्रीय टीम तक पहुंच गईं। 

ओडिशा की फूला सरें की कहानी दर्द से शुरू होती है। पांच साल की उम्र में उनकी एक आंख की रोशनी और मां का साया दोनों चला गया था, पर क्रिकेट ने उन्हें अपनाया। स्कूल के शिक्षक ने हाथ थामा और उन्होंने मैदान छोड़ना कभी नहीं सीखा। उनके लिए बड़ा मोड़ कोई ट्रॉफी नहीं था बल्कि वह एहसास था कि वह इस टीम में फिट होती हैं।

मध्यप्रदेश की सुनीता सराठे ने कॉलेज के बाद कई राहें खोजीं। क्रिकेट उनकी पहली पसंद नहीं थी लेकिन जब खेल तक पहुंचीं तो जान लिया कि यही रास्ता है। उन्होंने देर से शुरुआत की थी इसलिए खुद पर सबसे ज्यादा मेहनत की और अब भारत की सबसे भरोसेमंद फील्डर मानी जाती हैं।

ब्लाइंड क्रिकेट में गेंद प्लास्टिक की होती है जिसमें धातु की छोटी गेंदें होती हैं ताकि उसकी आवाज से पहचान हो सके। गेंद अंडरआर्म फेंकी जाती है और बैटर्स आवाज और संवेदनाओं से गेंद को खेलते हैं। पूरी तरह दृष्टिबाधित बल्लेबाज (B1) रनर के साथ खेलते हैं और उनके हर बनाए रन को दोगुना गिना जाता है। टीम को B1, B2 और B3 सभी कैटेगरी के खिलाड़ियों का संतुलन मैदान पर रखना होता है।

इस वर्ल्ड कप का सफर भारत ने हर कदम पर जीत से लिखा। श्रीलंका को 10 विकेट से, ऑस्ट्रेलिया को 209 रन से, नेपाल को 85 रन से, अमेरिका को 10 विकेट से और पाकिस्तान को 8 विकेट से हराकर टीम ने सेमीफाइनल में जगह बनाई। फिर एक बार ऑस्ट्रेलिया को 9 विकेट से पटखनी दी और फाइनल में नेपाल को हराकर ट्रॉफी अपने नाम कर ली।