नई दिल्ली। एक समय खाड़ी और दुनिया के सबसे अमीर देशों में शुमार कुवैत में नगदी संकट उत्पन्न हो गया है। हालात ये हो गए हैं कि आज कुवैत के पास सरकारी कर्मचारियों को अक्टूबर के बाद से सैलरी देने के पैसे नहीं हैं। साल 2016 में देश के वित्त मंत्री ने कहा था कि कुवैत को तेल पर पूरी तरह से आश्रित अपनी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। हालांकि, तब उनकी बातों को नजरअंदाज कर दिया गया। 

सिर्फ कुवैत ही नहीं तेल पर आश्रित दूसरे खाड़ी देश भी इसी समस्या का सामना कर रहे हैं। कोरोना वायरस संकट के कारण तेल की कीमतें बहुत नीचे गिर गई हैं। उम्मीद जताई जा रही है कि कोरोना संकट खत्म होते ही चीजें सामान्य हो जाएंगी। लेकिन लगातार बढ़ती जा रही ग्लोबल वार्मिंग और उसके जवाब में तेल की जगह ऊर्जा के नवीनीकृत स्रोतों के प्रयोग ने इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में मूलभूत परिवर्तन करने के लिए मजूबूर किया है। कुछ देशों ने ऐसा किया भी है। 

सऊदी अरब जनता को दिए जाने लाभों में कटौती और टैक्स में बढ़ोतरी कर रहा है। बहरीन और ओमान जैसे देशों में तेल के भंडार पहले ही कम हैं, ये दोनों देश उधार मांग रहे हैं और दूसरे अमीर पड़ोसियों की भी मदद ले रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात ने दुबई को लॉजिस्टिक्स और वित्तीय हब के रूप में विकसित कर दिया है। 

हालांकि, कुवैत अपनी राजनीतिक व्यवस्था के कारण अभी तक नीतिगत स्तर पर ऐसा कोई फैसला नहीं ले पाया है। कुवैत में संसद के प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है, जबकि प्रधानमंत्री की नियुक्ति देश के अमीर करते हैं। पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था में प्रस्तावित परिवर्तन इस राजनीतिक व्यवस्था के कारण नहीं हो पाए हैं। दूसरी तरफ सरकार ने देश की नगदी लगभग खत्म कर दी है और बजट घाटा 46 अरब डॉलर के करीब पहुंचने को है। 

ऐसा नहीं है कि कुवैत का यह आर्थिक पतन हाल की परिघटना है। 1970 के दशक में कुवैत खाड़ी देशों के सबसे गतिशील देशों में शामिल था। देश की संसद सही बात करने में घबराती नहीं थी। देश में उद्यमियों की विरासत थी, लोग पढ़े लिखे थे। लेकिन फिर 1982 के स्टॉक मार्केट क्रैश ने कहानी पलट दी। इसी समय एक दशक लंबा इराक-ईरान युद्ध भी हुआ और फलस्वरूप कुवैत की अर्थव्यवस्था नीचे गिरती चली गई। हालांकि, सद्दाम हुसैन ने जो विध्वंस मचाया, उसके पुनर्निमाण ने एक बार फिर से 1991 में कुवैत की अर्थव्यवस्था को गति दी और इसी समय तेल निर्यात के रास्ते से भी अड़चने खत्म हो गईं।

लेकिन कुवैत अपनी 90 प्रतिशत आय के लिए अभी भी तेल पर निर्भर है। सरकार में 80 प्रतिशत कुवैती काम करते हैं। घर, तेल और खाना मिलाकर सरकार एक परिवार पर करीब दो हजार रुपये प्रति महीने खर्च करती है। सैलरी और दूसरी सब्सिडी में भी सरकार का तीन चौथाई खर्च जाता है। ऐसे में बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में उसके सामने काफी दिक्कतें खड़ी होने जा रही हैं।