पेरिस। मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले के पाटनगढ़ गांव के युवा आदिवासी कलाकार मयंक श्याम ने पेरिस में गोंड कला की नई पहचान गढ़ दी है। 18 से 31 अक्टूबर तक चली एस्पेस सिंको गैलरी में उनकी सोलो एग्जीबिशन में 35 पेंटिंग्स प्रदर्शित हुईं जिनमें से ज्यादातर वहीं बिक गईं। उनकी एक सिंगल-शीट पेंटिंग करीब दो लाख रुपये में खरीदी गई।

करीब 36 साल पहले इसी शहर में मयंक के पिता जनगण सिंह श्याम की प्रदर्शनियों ने गोंड कला को पहली बार अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई थी। जनगण का जापान से खास रिश्ता रहा और वे वहीं कई बार प्रदर्शनी लगा चुके थे। जापान की रिसर्चर काउरी ने जनगण पर जापानी भाषा में किताब भी लिखी है जिसका अंग्रेजी संस्करण जल्द प्रकाशित होगा।

मयंक ने अपनी पहली लंबी इंटरनेशनल यात्रा को याद करते हुए बताया कि उन्हें उड़ान और भाषा दोनों का डर था। लेकिन पेरिस में मिले सम्मान ने सारी झिझक उतार दी। उनकी अंग्रेजी कमजोर थी फिर भी दर्शक उनके विचार सहजता से समझ लेते थे। उनका कहना है कि कला संवाद की वह भाषा है जो किसी अनुवाद पर निर्भर नहीं करती।

15 दिनों की प्रदर्शनी में बच्चे, बुजुर्ग और युवा बड़ी संख्या में पहुंचे थे। हालांकि, वहां कई ऐसे भी लोग रहे थे जो पेंटिंग खरीद भी नहीं पाए थे लेकिन काम की बारीकियों को देखकर लगातार प्रशंसा करते रहे थे। मयंक के मुताबिक, फ्रांस में कला के प्रति लोगों का झुकाव बेहद संवेदनशील और परिपक्व है।

2021 में मयंक ने एक बड़ा मोड़ लेते हुए एक्रेलिक और ऑयल कलर्स छोड़कर पूरी तरह प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल शुरू किया था। उन्होंने अपना कलर बैंक भी तैयार किया था। इसमें अमरकंटक की रामरज मिट्टी को रोस्ट कर लाल रंग बनाया था। वहीं, गांव की छूही मिट्टी से सफेद रंग और फूल-पत्तों से पीला, हरा, गहरा नीला और जामुनी शेड बनाया था। उनका कहना है कि वे वही प्राकृतिक पदार्थ इस्तेमाल करते हैं जो उनके पूर्वज घरों की लिपाई-पुताई में करते थे। प्रकृति ही उनकी असली पैलेट है।

मयंक की पेंटिंग्स में मध्य प्रदेश की लोककथाएं, आदिवासी देवी-देवता, समाज, प्रकृति और पूरी सांस्कृतिक विरासत छिपी होती है। उनके मुताबिक, वे कैनवास पर सिर्फ रंग नहीं लगाते बल्कि अपनी सभ्यता की परतें उकेरते हैं। पेरिस में रहते हुए मयंक ने लूव्र म्यूजियम में लियोनार्डो द विंची की कृतियां देखीं और शहर में घूमते हुए रंग-बिरंगी पत्तियों ने उन्हें इतना आकर्षित किया कि वे कई पत्तियां भारत तक लेकर आए। उनका इरादा उन पत्तियों से नए शेड तैयार करने का है।

प्रदर्शनी के दौरान ही डिंडौरी के आदिवासी गांवों पर आधारित किताब चोला माटी का विमोचन भी हुआ। किताब की लेखिका पद्मजा श्रीवास्तव हैं और इसमें मयंक की बनाई कई पेंटिंग्स शामिल हैं। यही पद्मजा थीं जिन्होंने मयंक के काम को देखा और दुपट्टा संस्था के माध्यम से उनकी पेंटिंग्स पेरिस भेजीं। दिसंबर 2024 में संस्था ने उनसे प्रदर्शनी के लिए सीधे संपर्क किया था।

मयंक के पिता जनगण सिंह श्याम गोंड आर्ट के संस्थापक माने जाते हैं। जापान में उनकी पेंटिंग्स बेहद लोकप्रिय थीं। हालांकि, 2001 में उन्होंने वहीं सुसाइड कर लिया था। उनके आत्महत्या का कारण कभी पता नहीं चल सका। लेकिन जापान और दुनिया भर में उनकी कला अब भी सम्मान के साथ याद की जाती है। अमेरिका, फ्रांस और जापान सहित कई देशों में उनकी प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं।