पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले सीएम नीतीश कुमार की मुश्किलें कम होती नहीं नजर आ रही है। नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के खिलाफ एनडीए गठबंधन के घटक दल, एलजेपी ने तो मोर्चा खोला ही था अब बीजेपी ने भी दबे पांव नीतीश के उम्मीदवारों के खिलाफ अपने नेताओं को मैदान में भेजना शुरू कर दिया है।

राजनीतिक जानकारों की मानें तो नीतीश कुमार को इस बार उनके ही सहयोगी उन्हीं के जाल में फंसाकर सत्ता से बेदखल करने की तैयारी कर चुके हैं। इसकी बानगी तब देखने को मिली जब एलजेपी ने एलान किया कि वह जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करेगी और चुनाव के बाद बीजेपी के साथ सरकार बनाएगी। जानकारों का मानना है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति के बिना एलजेपी ने यह कदम नहीं उठाया है।

इस बात पर मुहर तब लगी जब, संघ और बीजेपी के कद्दावर नेता राजेंद्र सिंह ने एलजेपी के टिकट से जेडीयू के प्रत्याशी जय कुमार सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान किया। बता दें कि यह वही राजेंद्र सिंह हैं, जो साल 2015 में बीजेपी के सीएम पद के सबसे चर्चित चेहरे थे। उस वक्त मीडिया में यह खबर जोर-शोर से चलाई जा रही थी कि बीजेपी को अगर बहुमत मिलता है, तो हरियाणा में जिस प्रकार नए चेहरे मनोहर लाल खट्टर को पार्टी ने मुख्यमंत्री बनाया, उसी प्रकार राजेंद्र सिंह बिहार में छुपे रुस्तम हो सकते हैं।

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आरएसएस में राजेंद्र सिंह का कद काफी बड़ा माना जाता है। झारखंड 2014 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत दिलाने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। फिलहाल वह बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष के पद पर थे। बता दें कि साल 2015 में वह पहली बार बीजेपी के टिकट से दिनारा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े थे। हलांकि, उस वक्त जेडीयू के प्रत्याशी ने उन्हें हरा दिया था।

इस बार के चुनाव में गठबंधन अलग है, समीकरण अलग हैं। लेकिन एक बार फिर से एलजेपी जॉइन कर राजेंद्र सिंह सुर्खियों में आ गए हैं। माना जा रहा है कि उनके चुनाव में खड़ा होने से संघ परिवार के मतदाता प्रभावित होंगे वहीं जिन जगहों पर एलजेपी उन्हें जेडीयू के खिलाफ प्रचार में लेकर जाएगी वहां के संगठन और पार्टी पदाधिकारी इनके कहने पर जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ हो सकते हैं, जिससे नीतीश की पार्टी को खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है।

इतना ही नहीं बीजेपी के दो अन्य कद्दावर नेताओं ने भी एलजेपी का दामन थाम लिया है। इनमें वरुण पासवान कुटुंबा विधानसभा क्षेत्र से हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। हिंदुस्तान अवाम मोर्चा को नीतीश ने अपने कोटे से सीटें दी हैं। बीजेपी की वरिष्ठ नेता डॉ उषा विद्यार्थी ने भी एलजेपी का दामन थाम लिया है। बता दें कि उषा पालीगंज विधानसभा सीट से विधायक रह चुकी हैं। बताया जा रहा है कि वह भी एलजेपी के टिकट से पालीगंज क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगी।

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बीजेपी के लिए झटका या जेडीयू के लिए मुसीबत

बीजेपी नेताओं द्वारा लगातार पार्टी से बगावत कर एलजेपी में शामिल होने को बीजेपी के लिए झटका कहा जा रहा है। हालांकि जानकारों की राय कुछ अलग है। उनका कहना है कि यह बीजेपी के लिए नहीं बल्कि जेडीयू के लिए झटका है। इस तर्क में इसलिए भी दम है कि चिराग ने साफ किया है कि उनकी पार्टी बीजेपी और पीएम मोदी को मजबूती देगी। ऐसे में यह सवाल ही नहीं उठता की एलजेपी बीजेपी नेताओं को फोड़कर अपनी पार्टी में लाए। सिर्फ उन्हीं सीटों पर बीजेपी नेता एलजेपी में जा रहे हैं, जो जेडीयू के खाते में गई हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक अभी कई और सीटों पर बीजेपी उम्मीदवार एलजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़ेंगे।

नीतीश कुमार को भी लग चुकी है भनक

बीजेपी के भीतरखाने पक रही इस खिचड़ी की भनक सीएम नीतीश कुमार को भी है। वह एलजेपी और बीजेपी की साठ-गांठ को लेकर खासे नाराज चल रहे हैं। उन्होंने बीजेपी को एलजेपी के भविष्य को लेकर जल्द फैसला करने के लिए कहा था। हालांकि पार्टी ने रामविलास पासवान की तबीयत खराब होने की वजह से कुछ भी स्पष्ट नहीं किया। माना जा रहा है कि सिर्फ नीतीश को सांत्वना देने के लिए बीजेपी कह रही है कि हमारे नेता नीतीश कुमार ही हैं।

क्या हो सकता है इसका नतीजा 

दरअसल, राजनीति के मौसम वैज्ञानिक माने जाने वाले रामविलास पासवान के बेटे का इस फैसले के पीछे बड़ा खेल माना जा रहा है। आकलन यह है कि एलजेपी के अकेले चुनाव लड़ने और बीजेपी के साथ उसकी मिलीभगत से जेडीयू को काफी नुकसान हो सकता है। जबकि बीजेपी नेताओं के एलजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़ने से बीजेपी और एलजेपी दोनों की स्थिति मजबूत हो सकती है। इन्हीं हालात का सीधा फायदा चिराग उठाना चाहते हैं। 

एलजेपी ने आरजेडी को भी इसी तरह किया था सत्ता से बेदखल

बता दें कि यह पहली बार नहीं है जब एलजेपी ने इस तरह का फैसला लिया हो। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में भी उसने अपने इसी रणनीति से आरजेडी को सत्ता से बेदखल किया था। उस दौरान प्रदेश में आरजेडी और कांग्रेस का गठबंधन था और एलजेपी भी कांग्रेस का समर्थन कर रही थी। एलजेपी ने चुनाव के दौरान आरजेडी के खिलाफ उम्मीदवार उतारे, लेकिन कांग्रेस को समर्थन दिया था। इसका नतीजा ये हुआ कि आरजेडी को सत्ता से बेदखल कर नीतीश सीएम बन गए थे। अब देखना दिलचस्प होगा कि क्या एलजेपी ने जिस रणनीति से नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था, वही रणनीति नीतीश को कुर्सी से नीचे भी उतारेगी?