मथुरा। उत्तर प्रदेश के मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान परिसर के पास सदियों से मौजूद शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की कोशिशों की पुजारियों के संगठन ने निंदा की है। अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित महासभा ने कहा है कि कुछ लोग मथुरा के शांति-सद्भाव को बिगाड़ने की कोशिश के तहत ऐसे मुद्दे उछाल रहे हैं। महासभा का कहना है कि 1968 में दोनों पक्षों के बीच कोर्ट की सहमति से हुए समझौते के बाद से मथुरा में मंदिर-मस्जिद का कोई विवाद नहीं रह गया है। ऐसे में सदियों पुरानी शाही मस्जिद को हटाने के लिए कोर्ट जाने का कोई औचित्य नहीं है।

शांति सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश

महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष महेश पाठक ने कहा कि कुछ बाहरी लोग मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे उठाकर मथुरा के शांति-सद्भाव से भरे माहौल को बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि दोनों समुदायों के बीच सद्भाव है और सदियों से अगल-बगल में धार्मिक स्थल का मौजूद होना दोनों समुदायों की भावनात्मक एकजुटता का उदाहरण है। गौरतलब है कि लखनऊ निवासी रंजना अग्निहोत्री, शिवाजी सिंह, त्रिपुरारी तिवारी, सिद्धार्थ नगर के राजेश मणि त्रिपाठी, बस्ती के करुणेश कुमार शुक्ला और दिल्ली के परवेश कुमार ने इस सिलसिले में कोर्ट में याचिका दायर की है।

1968 में अदालत की सहमति से हुए समझौते को रद्द करने की मांग

याचिका में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच पांच दशक पहले हुए उस समझौते को अवैध बताया गया है, जिसे 1968 में ही अदालत ने भी मंजूरी दे दी थी। लेकिन अब भगवान श्रीकृष्ण विराजमान के नाम से एक याचिका दायर की गई है, जिसमें उस समझौते को रद्द करके मस्जिद की पूरी जमीन पर मिल्कियत का दावा किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के वकील विष्णु शंकर जैन ने शुक्रवार को मथुरा की एक अदालत में याचिका दाखिल करके कहा है कि श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच 1968 में कोर्ट की सहमति से हुआ समझौता गलत है, लिहाजा उसे रद्द किया जाए।

52 साल बाद क्यों दी जा रही समझौते को चुनौैती

जैन का दावा है कि जिस जमीन पर मस्जिद बनी है, वह श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट और भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की है। ऐसे में सेवा संस्थान द्वारा समझौता किया जाना गलत है। हालांकि उनके इस दावे को लेकर यह सवाल भी उठ रहा है कि 1968 में हुए इस समझौते के गलत होने की याद अचानक 52 साल बाद क्यों आ रही है? सवाल यह भी है कि अगर समझौता गलत होता तो उस वक्त अदालत उसे मंजूर क्यों करती?