अन्तर्मुखसमाराध्या,

बहिर्मुखसुदुर्लभा

श्रीललितासहस्र नाम में भगवती राजराजेश्वरी का एक नाम है "अन्तर्मुखसमाराध्या" अर्थात जो अन्तर्मुख साधक हैं, भगवती उनकी आराध्या हैं। अब प्रश्न ये है कि हम अपनी प्रवृत्ति को अन्तर्मुख कैसे बनाएं? पहले यह समझना होगा कि (चेतन अमल सहज सुख राशी) ईश्वर का अंश यह जीव बहिर्मुख होकर दुखी कैसे हो गया। सुख जीव का सहज स्वरूप है। इसका अनुभव हमें तब होता है, जब प्रगाढ़ निद्रा से उठते हैं तो लगता है कि आज हम बहुत सुख से सोये, फिर दुखी कैसे हुए? अपने स्वरूप की विस्मृति के कारण ही हम दुखी हो गए हैं। जो अपना सहज स्वरूप है, वहां से दृष्टि मोड़कर दूसरी ओर कर लिया। भगवान की ओर पीठ करके संसार की ओर मुख करके बैठ गया और इन्द्रियों के जो विषय हैं उनमें ही उलझ गया। और ये इन्द्रियां उल्टी फिट हो गई हैं। कठोपनिषद में लिखा है कि-

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः,

तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्।

स्वयंभू ब्रह्मा ने इन इन्द्रियों को परांचि अर्थात् बहिर्मुख बना दिया। इसलिए ये बाहर तो देखती हैं लेकिन

 नान्तरात्मन् अन्तरात्मा को नहीं देख पाती। क्योंकि अन्तरात्मा भीतर है और नेत्र स्वाभाविक रूप से बाहर ही देखता है। जैसे कार की लाइट सड़क को तो दिखाती है लेकिन जो कार में बैठा हुआ है उसे नहीं दिखाती। अभिप्राय ये है कि ईश्वर की ओर से दृष्टि हट जाना ही दुख का कारण है। द्वैत ही दुख का कारण है। और इससे सहज सुख स्वरूप आत्मा आवृत होकर ढक जाता है। तो

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत्।

कोई एक धीर पुरुष ही उसका दर्शन कर पाता है। इसलिए भगवान ने सोचा कि हमें जीवों को आनंद मग्न बना देना है। इनके दुख को दूर कर देना है। अकारणकरुण करुणावरुणाय सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जीवों के कल्याण के लिए निर्गुण निराकार निर्विकार सच्चिदानंद स्वरुप होते हुए भी अपने आप को चार रुपों में अभिव्यक्त किया। नाम, रूप, लीला और धाम।

 और पढ़ें: सगुण साकार भगवान में मन रमाएँ

नाम भी भगवान की अभिव्यक्ति है, रूप लीला और धाम भी भगवान की अभिव्यक्ति है। इनका आश्रय ग्रहण करने पर ये बहिर्मुख इन्द्रियां अन्तर्मुख हो जाती हैं और जीव का कल्याण हो जाता है। अभिप्राय ये है कि अन्तर्मुख तो होना पड़ेगा और उसके लिए नाम रूप लीला और धाम में से किसी एक ही की शरण ग्रहण कर लें, तो भी हमारी वृत्ति अन्तर्मुखी हो सकती है और हम अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।