सगुण साकार भगवान में मन रमाएँ

हृदय से जब जाहुगे, मर्द कहौंगो तोहिं

Updated: Oct 14, 2020, 12:37 PM IST

*सर्वाभिलाषिताशून्यं*,
*ज्ञानकर्माद्यनावृतम्*।
*आनुकूल्येन कृष्णानु*,
*स्मरणं भक्तिरुच्यते*।।
इस सिद्धांत के अनुसार भक्ति ही सब कुछ है। उसके लिए ही समस्त साधन हैं, ज्ञान और मोक्ष आदि उसमें विघ्न हैं। भक्तजन भुक्ति, मुक्ति, और विरक्ति सबको तिलांजलि देकर भक्ति को ही चाहते हैं। इसीलिए बड़े-बड़े परमहंस महामुनीन्द्रगण अद्वैत अनंत ब्रह्म से मन को हटाकर सगुण साकार भगवान में मन को लगाते हैं। जैसे द्रवीभूत लाख में हल्दी का रंग मिला दिया जाय तो करोड़ों प्रयत्न करने पर भी लाख से हरिद्रारंग को अलग नहीं किया जा सकता। वैसे ही भक्त और भगवान चाहकर भी परस्पर एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। श्री सूरदास जी महाराज के जीवन की घटना है। एकबार श्री सूरदास जी अपनी लठिया टेकते हुए,भजन गाते हुए कहीं जा रहे थे, सामने कुंआ था, उन्हें अंदाज नहीं मिल पाया और वे कुएं में गिर पड़े। अब तो श्री सूरदास जी महाराज ने संकल्प कर लिया कि भगवान ही निकालेंगे तो निकलूंगा,अन्यथा नहीं। भगवान आए और अपनी विशाल भुजाओं के द्वारा सूरदास जी को बाहर निकाल कर जाने लगे।श्री सूरदास जी ने अपने हाथों से भगवान के मंगल मय हस्तारविन्द को पकड़ लिया, किन्तु जिनकी शक्ति से शक्तियां भी शक्तिशालिनी होती हैं,उसे क्या कोई पकड़ सकता है,या कुछ कर सकता है?अस्तु भगवान ने यों ही हाथ छुड़ा लिया और जाने लगे।तब श्रीसूरदास जी ने कहा-
*हाथ छुड़ाए जात हौ*,
*निबल जानि कै मोहि*।
 *हृदय से जब जाहुगे*,
  *मर्द कहौंगो तोहिं*।।
अन्त में भगवान को पराजित होना पड़ा। भक्त के हृदय से निकल कर भगवान जा ही कैसे सकते हैं। श्रीमद्भागवत में एक बार ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- विभो! आप इन प्रेमी भक्तों को क्या देकर उऋण होंगे, जिनके एकमात्र सर्वस्व आप ही हैं,जिन्होंने अपना सर्वस्व आपके श्री चरणों में अर्पण कर दिया है? भगवान ने कहा ब्रह्मन्! जब मैं अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक हूं। 
*कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ*  हूं,तब फिर ये प्रेमी भक्त जो लेंगे वही दे दूंगा और उऋण हो जाऊंगा।दिव्य से दिव्य सुख का साधन और ऐश्वर्य देकर इनसे उऋण हो जाऊंगा।ब्रह्मा जी ने कहा कि भगवन्! संसार का जितना भी सुख है उन सबका पर्यवसान आनंद विन्दु में है, तो क्या आप इन प्रेमियों को आनंद विन्दु देकर उऋण होंगे?यह हो नहीं सकता।भला जिनके मणिमय प्रांगण में धूलिधूसरित होकर परमानंद सिंधु ही 'थेई-थेई' करके नाच रहा हो उनको आनंद विन्दु की अपेक्षा ही क्या है? यह सुनकर भगवान ने उन ब्रज वासियों को बहुत-कुछ देने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मा जी सबको टालते गए।अन्त में भगवान ने स्वीकार किया कि मैं इनका ऋणी रहूंगा। सारांश यह है कि भगवान का मधुर मनोहर मंगल मय स्वरूप स्वत: फलस्वरूप है। उनके श्री चरणों का ध्यान ही परम फलस्वरूप है। यही भक्ति की पराकाष्ठा है।