श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन जी के कार्पण्य दोष को दूर किया। सर्व प्रथम हमें यह देखना होगा कि श्री अर्जुन जी में यह कार्पण्य दोष आया कैसे? अर्जुन जी अपने खोये हुए न्यायोचित राज्य को दुर्योधन से प्राप्त करना चाहते थे ।और दुर्योधन बार-बार आवाहन करता था कि सुई के अग्र भाग बराबर भूमि भी बिना युद्ध के मैं नहीं दूंगा।

शुच्यग्रं नैव दास्यामि,  बिना युद्धेन केशव।

और माता कुन्ती ने भी कहा-

यदर्थं क्षत्रिया सूते, तस्य कालोSयमागत:।

जिस उद्देश्य से क्षत्राणियां पुत्र उत्पन्न करती हैं, वह समय अब आ गया है।

क्यूंकि क्षत्राणियां समाज की रक्षा के लिए संतान उत्पन्न करती हैं। क्षत्रिय वह है जो क्षत अर्थात चोट से लोगों को बचाए। और अर्जुन जी स्वयं अपना पराक्रम देख चुके थे इसलिए उन्हें विश्वास था कि मैं सफल हो जाऊंगा। लेकिन जब दोनों सेनाओं के मध्य में खड़े होकर अर्जुन ने अवलोकन किया और पाया कि जिनसे मैं युद्ध करने जा रहा हूं ये तो सब हमारे स्वजन ही हैं। भीष्म, द्रोण,कृप के अतिरिक्त भले ही हमारा आपस में वैमत्य हो लेकिन कौरव भी तो हमारे पितृव्य हैं। हमारे बड़े पिता जी के पुत्र हैं, और सब इन्हीं के सगे संबंधी हैं, और यदि मैं विजयी होकर राज्य प्राप्त कर भी लेता हूं तो वह राज्य इनके रक्त से सना हुआ होगा। इनके साथ मैं युद्ध कैसे कर सकता हूं।

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अब प्रश्न ये उठता है कि जब उनके गुरुजन,कुटुम्बी और स्वजन सामने आ गए तो अर्जुन जी युद्ध से विरत होने की बात कह रहे हैं। कल्पना करें कि यदि कोई ऐसा होता जो इनसे संबंधित न होता तो क्या इन्हें यह चिंता होती कि इनके मरने से स्त्रियां विधवा हो जायेंगी? ये मनुष्य की निर्बलता है कि जब अपने या अपनों से कोई अपराध हो जाता है तो लोग सोचते हैं कि क्षमा कर देना चाहिए, और दूसरों से हो तो उसे दंडित करना चाहते हैं। जब हमारी बुद्धि हमारे मनोविकारों की पक्षधर हो जाती है, तो यही कार्पण्य दोष कहलाता है। इस कार्पण्य दोष से अर्जुन जी का जो स्वभाव था वह दब गया था, और भगवान ने अपने गीतामृत के द्वारा अर्जुन के कार्पण्य दोष को दूर किया है।