यत प्रवृत्तिर्भूतानां, येन सर्व मिदंततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य, सिद्धिं विन्दति मानव:।।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने बतलाया कि संसार में जिससे प्रवृत्ति है। जिससे संसार व्याप्त है उस परमात्मा की अपने धर्म से पूजा करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है। तो भगवान बुद्धि से युद्ध करने चले हैं। विभीषण के शंका करने पर भगवान बड़े प्यार से सखा संम्बोधन करते हुए विभीषण को समझाते हैं।   

सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।  

सखा धरम मय अस रथ जाके। जीतन कहं न कतहुं रिपु ताके।।

यहां रथ के सम्पूर्ण अंगों का वर्णन किया गया है। भगवान श्रीराम का अभिप्राय ये है कि जब हम संसार रिपु पर विजय प्राप्त कर लेंगे तो रावण जैसे शत्रु तो सहज में ही में परास्त हो जायेंगे।

संसार का अर्थ यहां पर विश्व नहीं है विश्व को शत्रु मानना, विश्व के साथ द्रोह करना तो बड़ा अनुचित है और ये श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य नहीं है। इसको तो घोर पाप माना जाता है। भगवान स्वयं बतलाते हैं। मंदोदरी कहती है-

शरण गए प्रभु ताहु न त्यागा। विश्वद्रोह कृत अघ जेहिं लागा।।

जिसको विश्व द्रोह का भी पाप लगा है शरण में आने पर भगवान उसका भी त्याग नहीं करते। तो यहां संसार का अर्थ विश्व नहीं। अपितु संसरणं संसार: संसरण जन्म मरण के चक्र में पड़ जाना। अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर जीव बन जाना। नित्य शुद्ध बुद्ध अजर अमर अनंत स्वप्रकाश ब्रह्म होते हुए भी, सुखी दु:खी संसारी भवाटवी में भटकने वाला समझने लग जाना इसका नाम संसार है। भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने अपने गीता के भाष्य में-सुखीत दुखीतमेव संसारीत्वम् कहा है।

संसारीत्व क्या है? सुखी और दु:खी होना ही संसारीत्व है। प्राणी सुखी और दु:खी कब होता है? जब अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत हो जाता है। भूल जाता है तो सुख दु:ख में पड़ जाता है।

दूसरा संसार का अर्थ ये है कि व्यक्ति जब अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है तो गुणों के प्रति उसका संग हो जाता है। प्रकृति के तीनों गुणों सत्व,रज,तम पर आसक्ति होने के कारण अनात्मा के धर्मों को स्वयं में आरोपित करके स्वयं को कर्ता मानने लगता है। जब कर्ता भोक्ता मानने लग जाता है तो कर्म के बंधन में पड़कर अनेकों जन्म प्राप्त करता है। अनेकों प्रकार के सुख और दुःख भोगने पड़ते हैं।इसी का नाम संसार है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा कि-

ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी।।

सो माया बस भयउ गोसाईं। बंधेउ कीर मर्कट की नाईं।।

जड़ चेतनहिं ग्रन्थि पड़ गई।  जदपि मृषा छूटत कठिनई।।

तब ते जीव भयउ संसारी। छूटि न ग्रन्थि न होइ सुखारी।।

जब से ये जड़ चेतन की गांठ पड़ी है। तब से ये जीव संसारी बना है। अर्थात् सुखी दु:खी बन गया है। जन्म मरण वाला बन गया है। और जब तक ये जड़ चेतन की गांठ छूटेगी नहीं तब-तक जन्म मरण का चक्र, सुख दु:ख का चक्र छूट नहीं सकेगा तो ये है संसरणं संसार:।

यह संसार एक प्रकार की वनस्थली है। भवाटवी है। भयंकर वन है। जैसे कोई वन में भटक जाय रास्ता न सूझे उस अवस्था में जो ये जीव पड़ा है उसका नाम संसार है। तो इस संसार रूपी शत्रु को जीतना है। कैसे जीतें? तो भगवान कहते हैं कि जैसे और शत्रुओं को जीतने के लिए रथ की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार संसार शत्रु को जीतने के लिए भी रथ की आवश्यकता है और वह है "धर्म रथ" स्वधर्म पालन उसका ढांचा है। अठारह उसके अंग हैं। ऐसे धर्म रथ पर बैठ कर ही संसार शत्रु पर विजय प्राप्त किया जा सकता है।